- का दुर्गं तो उस काल में संसार भर में अद्वितीय था। सन १८१६ में जब असीरगढ़ के दुर्ग का पतन हुआ, जिसने शताब्दियों तक मुस्लिम आक्रान्ताओं के दाँत खट्टे किए थे। तब समझा गया-मराठों की अजेय और विश्व विश्रुत दुर्गावलि अंग्रेज़ों के हाथ में चली गई । इससे पूर्व दो बार मराठा संघ संकट में पड़ चुका था। पहली बार उस समय, जब शिवाजी का अयोग्य पुत्र सम्भाजी शिवाजी के क्रोध का शिकार बना। सम्भाजी चाहे जैसा भी अयोग्य सरदार था—पर उसके बिना मराठा शक्ति सिर रहित धड़ के समान हो गई थी, फिर भी वह इतनी प्रबल थी कि औरंगजेब को उसे दमन करने में और उस परि- स्थिति से लाभ उठाने में अपनी समूची सैन्यशक्ति दक्षिण में झोंक देनी पड़ी थी। परन्तु शिवाजी ने जो सुन्दर राज्य संगठन किया था, उसके कारण मराठा राज्य संघ उस संकट को पार कर गया था। इसके बाद जब पानीपत के खण्ड प्रलय ने मराठा शक्ति को तोड़ डाला, उस समय दिल्ली की गद्दी पर या कहीं भी कोई एक भी महत्वा- कांक्षी हिन्दु या मुसलमान शासक होता तो मराठों का उस विपदासे निस्तार न था। परन्तु उस समय दिल्ली का सिंहासन वीरविहीन हो चुका था, इसी से मराठा संघ बच गया । अब यह तीसरी टक्कर थी जो मराठा शक्ति को इंगलैंड की बढ़ती हुई सामर्थ से लगी थी। दो टक्करें उसने अपनी सामर्थ्य से सही, पर तीसरी ने उसे चकनाचूर कर दिया। जिससे शिवाजी का भारत भर में हिन्दुपत पातशाही स्थापित करने का और पेशवा वाजीराव प्रथम का अटक से कटक तक भगवा ध्वज फहराने का स्वप्न भंग हो गया। शिवाजी ने अष्ट प्रधानों के रूप में मराठा संघ का संगठन किया था, जो आगे मराठा संघ के रूप में परिवर्तित हो गया। ये मराठा संघ के अधिपति आपस में किसी ऐसे वैधानिक सूत्र में गुथे न थे जिनसे उनका अंततः संगठन कायम रहता। वे कहने को तो मराठा संघ के सदस्य थे, पर सब प्रकार संधि विग्रह करने में स्वतन्त्र थे । पानीपत के खण्ड २०३
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