जाते और किसी की आन नहीं मानते थे। दौलतराव सिंधिया एक धूर्त सरदार था। वह एक अवसरवादी और वीर पुरुष था। वह समय पर लड़ता भी था और तरह भी देता था। उसने मराठा सरदारों से अलग होकर अंग्रेजों से सन्धि करली, जिसने मराठा शाही के पतन का द्वार खोल दिया। इसके बाद बड़ौदे के आनंद- राव ने अपने को अंग्रेजों के हाथ बेच दिया । इस समय माउन्ट स्टुअर्ट एलफिंस्टन पेशवा के दरबार में अंग्रेजों का प्रतिनिधि था, जो माचिस आफ हेस्टिग्ज का दाहिना हाथ था, उसने पेशवा को इस तरह अपने शिकंजे में कसा और उसकी गर्दन दबाकर ज़बरदस्ती सिंहगढ़, पुरन्दर और रायगढ़ के प्रसिद्ध क़िले हथिया लिए, जिससे मराठा संघ में उदासी छा गई और अंग्रेज़ी सरकार के घर में घी के चिराग़ जल उठे। और उन्हें आशा हुई कि अब मराठा संघ कुछ ही दिनों का मेहमान है। अब बाजीराव के चारों ओर एलफिस्टन के जासूसों का जाल पुरा हुआ था। इन सबसे घबराकर पेशवा एक बार पूना से भाग भी गया, परन्तु सर जान मालकम की सलाह से वह फिर पूना में आकर सेना भर्ती करने लगा। अब वह सावधान हो गया था परन्तु चूंकि वह दृढ़ निश्चयी पुरुष न था, इसलिए उसके प्रत्येक काम ढीले और संदिग्ध रहते थे।
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विजया दशमी १६ अक्टूबर सन् १८१८ का दिन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। इस दिन विजया दशमी थी । बहुत दिन बाद, वसई सन्धि के अवसाद की समाप्ति के चिन्ह इस दिन पूना में प्रकट हो रहे थे। पेशवा की आज्ञा से इस वार पूना में विजया दशमी का त्योहार बड़ी धूम-धाम से मनाया गया था। पेशवा ने अपनी सारी सेना की परेड देखने की आज्ञा दी थी। और इस समय सूर्य की प्रातःकालीन धूप में पेशवा के पचास हजार योद्धा १८४