देशी रियासतों को पृथ्वी पर से मिटा डालने का एक व्यापक प्रयत्न कर रहे थे और भारत के राजे-महाराजे अभी बेखबर सो रहे थे। किन्तु मराठे जाग उठे थे। वे बेचैन तो पहले से ही थे, अब सशंक हो गए थे। पेशवा और बरार के राजा ने देखा कि ये जबर्दस्त सैनिक तैयारियाँ केवल पिण्डारियो के दमन के लिए नहीं हैं। स्वयं गवर्नर-जनरल जिस युद्ध का संचालन कर रहा है, उसका प्रकट उद्देश्य चाहे जो बताया जाय-अन्त में यह युद्ध मराठा सामर्थ्य को चकनाचूर करेगा। बड़े-बड़े अग्रेज़ अफ़सर गुप्त पत्र व्यवहार कर रहे थे। अंग्रेज़ी छाव- नियों में इसी विषय के विवाद छिड़ रहे थे। राजनैतिक धुरीण पुरुष, कौंसिल की बैठकों में इसी विषय पर गम्भीर चर्चाएँ चलाते थे, सिपाही लोग अपने हथियार साफ़ करते हुए खुशी-खुशी अपनी अटकलें लगाते और पेशीनगोइयाँ करते थे। अंग्रेज़ शायद यह सोचते थे कि वे जब अपनी तोपों में गोले भर कर—उनके मुंह पर बारूद रख कर जलता हुआ पलीता हाथ में लिए खड़े होंगे तो तमाम दुनिया अपनी तोपें उतार कर अलग रख देगी ! सन् १८१७ की गर्मी और पतझड़ के दिन थे, जब अंग्रेज़ सेनाएँ अपनी-अपनी जगह जमा हुईं। चौतीस हजार सवारों की एक जबर्दस्त सेना स्वयं लार्ड हेस्टिग्स के नेतृत्व में संगठित हुई । इस सेना के तीन डिवीज़न किए गए। कुछ सेना बचा कर रिजर्व में रखी गई। तीनों डिवीज़नों में एक आगरे में, दूसरी काल्पी के निकट जमना के किनारे सिकन्दरे में और तीसरी कलिंजर बुन्देलखण्ड में । शेष रिजर्व पल्टन दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम रिवाड़ी में नियुक्त की गई। दक्षिण की सेना में सत्तावन हजार स्थायी सैनिक थे। इसकी कमान लेफ्टिनेन्ट-जनरल सर टामस हिसलम के अधीन दी गई। यह सेना पाँच डिवीजनों और एक रिज़र्व में बाँट दी गई। इस सेना की स्थिति ऐसी रखी गई कि हिदिया और होशंगाबाद के रास्ते तमाम सेना एक साथ १८५
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