india कहाते थे। जो परस्पर संगठित होते थे। ये बड़े शहसवार और कठिन योद्धा होते थे । मराठों और औरंगजेव के बीच युद्धों में इन्होंने बड़ी भारी वीरता और फर्मावरी दिखाई थी। नसरू पिण्डारी शिवाजी का का एक विश्वस्त जमादार था । उन दिनों एक दूसरा पिंडारी सरदार सेनापति पुनापा मराठों का भारी मददगार था । पेशवा बाजीराव प्रथम ने अधिकतर पिंडारियों की मदद से मालवा जय किया था। इसके बाद भी होल्कर और सिंधिया की सेना में पिंडारियों के अनेक दुर्गे और लब्बर थे। हीरा खाँ पिंडारी और तुरान खाँ पिंडारी माधोजी सिंधिया के विश्वस्त सेनापति थे। पिडारी सरदार चीतू को उसकी सेवानों के उपलक्ष्य में महाराज दौलतराव सिंधिया ने नवाब की उपाधि दी थी। एक दूसरे पिण्डारी सरदार करीम खाँ को भी उन्होंने नवाब बनाया था। पानीपत की तीसरी लड़ाई में पिण्डारी सरदार हूल सवार ने पन्द्रह हजार सवार लेकर मराठों के साथ प्राण त्यागे थे। मराठों और मुसलमानों के बीच कभी वेमनस्य न रहा था । दोनों ही मराठी बोलते तथा दोनों के रीति-रिवाज भी प्रायः एक से ही रहते थे । सिंधिया और अन्य मराठा नरेशों के सेनापति प्रायः मुसलमान होते थे। शान्ति-काल में ये खेती-बाड़ी और वणिज-व्यापार करते थे, युद्ध छिड़ने पर अपने घोड़े और हथियार लेकर मराठा दरबारों की मदद को पहुंच जाते थे। होल्कर राज्य के पिंडारी होल्करशाही और सिंधिया सरकार के सिंधियाशाही कहाते थे । जब ईस्ट इंडिया सरकार ने सब-सीडीयरी सेना का जाल बिछा कर सिंधिया होल्कर और पूना दरबार को फाँस लिया, तो ये बेचारे पिण्डारी असहाय रह गए। अब इनका कोई सैनिक उपयोग मराठा दरबार न कर सकते थे । खेती क्यारी की आय यथेष्ट न थी-खास कर वे प्रकृत सिपाही पेशा लोग थे। अब पिंडारियों के दल लावारिस सैनिक टुकड़ियों की भाँति समूचे मध्यभारत में घूमते-फिरते थे । जो चाहे उनकी सेवाएं खरीद सकता था। अंग्रेजों की नज़र पहले ही उनकी १८१.
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