अब अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा साहूकार था । इंगलैण्ड के पुराने दमखम खत्म हो रहे थे। पर अकड़ वह नहीं छोड़ता था। इस तरह अमेरिका और इंगलैण्ड की आर्थिक खींचा-तानी संसार को दूसरे महा भयंकर युद्ध की ओर खींचे लिए जा रही थी। अन्त में इंगलैण्ड घुटनों के बल गिर गया । वह अपने पौण्ड की रक्षा न कर सका। अपना सोना बचाने के लिए उसे पौण्ड को सोने से पृथक् करना पड़ा, जिस से पौण्ड की कीमत गिर गई। यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय घटना थी। इससे उसके हाथ से विश्व का वह आर्थिक नेतृत्व चला गया, जिसकी बदौलत लंदन संसार का केन्द्र बना हुआ था। बैंक आफ इंगलैण्ड, जो दुनिया का दो-तिहाई सोना सदा खरीदता था, और जिसके बल-बूते पर इंगलैण्ड सौ वर्षों से भी अधिक काल तक संसार का स्वर्ण सम्राट् बना हुआ था, अपनी साख कायम न रख सका, और इंगलैण्ड के टाट उलटने के लक्षण प्रकट होने लगे। अमेरिका के पास इस समय संसार का दो-तिहाई सोना जमा था । संसार के सारे राष्ट्र उसके कर्जदार थे । यूरोप पर इस समय उसका दस अरब डालर का कर्जा था, और अब वह अपने कर्जे की मांग करके किसी भी यूरोपियन देश को दिवालिया बना सकता था । इस लिए अब यह स्वाभाविक ही था कि वह मांग करे कि अब लंदन क्यों ? न्यूयार्क संसार की आर्थिक राजधानी बने। फिर क्या था, अपनी-अपनी सरकारों के हाथ अपनी-अपनी पीठों पर पाकर न्यूयार्क और लंदन के धन-कुबेर उद्योग में ताश के पत्ते फेंकने लगे । परन्तु इंगलैण्ड का पौण्ड हिल गया और सारी दुनिया में अकेला अमेरिकी डालर अटल चट्टान की भाँति खड़ा रहा । इसी समय जापान अपनी मुद्रा लेकर एशिया के बाजार में उल्का की भाँति पा टूटा, जिससे ब्रिटेन और अमेरिका दोनों ही थर्रा उठे। और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर अपना एकाधिकार कायम रखने के लिए ब्रिटेन, अमेरिका और जापान तीनों के हाथ अपनी-अपनी तलवारों की मूठ पर जा पहुंचे। 25
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