हर वक्त ताजा दनादन तैयार रहते थे, ग्राहक हुक्का गुड़गुड़ाते और सौदा खरीदते थे। दूकान के बाईं ओर एक पतली गली मछली वाले बाज़ार तक चली गई थी। रात को इस गली में घुप अंधेरा रहता था। दूकान के पिछवाड़े का दरवाज़ा इसी गली में था। यहीं पिछवाड़े की तरफ़ दूकान में एक अंधेरी कोठरी थी, जिसका द्वार भी उधर ही था । यहाँ बैठ कर ग्राहक चण्डू और मदक के दम लगाते या विलायती शराब पीते थे। जो इस दुकान पर खासतौर पर बेची जाती थी। दूकान के स्वामी का नाम हुसेनी था । देखने में यह आदमी अच्छा- खासा मस्खरा लगता था । गला काटने और जहर खिलाने से लेकर कुर्रम- गिरी करने तक कोई काम ऐसा न था जो मियाँ हुसैनी न कर सकते हों। सारे कुकर्म इसी पिछली कोठरी होते थे, जिसकी कानोंकान किसी को खबर भी नहीं लगती थी। रात के नौ बज चुके थे। दूकान का सदर दरवाजा बन्द हो चुका था। पर पिछवाड़े वाली कोठरी में इस समय हुसेनी आराम से बैठा पी रहा था। उसे कई मुलाक़ातियों के आने की उम्मीद थी । मुला- क़ाती उसके लिए हमेशा लाभदायक होते थे। निट्ठले मुलाक़ातियों से वह वास्ता नहीं रखता था। इसी समय चौधरी ने आकर कहा-“मज़े से हुक्का गुड़गुड़ा रहे हो दोस्त ।" "या वई चौधरी, भीतर आ जा, फिक्र न कर। आजकल काम मंदा हो रिया है । आज के दिना तो बौतई सर्दी है, कि तौबा ही शुक्र है । बस, मैं ज़रा जुग्रा मैजिड तोड़ी सैल करके अबी आया हूँ।" चौधरी भीतर आकर बैठ गए। इधर-उधर देख कर उन्होंने कहा- "साहेब लोग आएँगे भी।" "सूर ही मरे जो जूठ बोले । क़सम रजक वई चौधरी, साब लाखों में आवेंगे। साव लोग में ये बात लाख रुपये की है। बात के धनी होते हैं । बस अब वख्त हो ही रिया है । फिर फैज बजार में मेरी दुकान में जो शराब मिलती है, वो रेजीडेन्ट के बंगले पर भी नी मिलती। मैं सीधा
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