कल दरबार की बाबत सब मामला साफ़-साफ़ तय कर डालो।" "बहुत अच्छा जनरल महोदय, और कुछ हुक्म है ?" "हाँ, उस बदनसीब नवाब बब्बू खाँ का क्या हुआ ?" "वह तो बिल्कुल दब्बू और पोच आदमी है। उस ने बिना ही पढ़े सोचे-समझे हमारी शर्ते मान ली हैं । यह इक़रारनामा है, लीजिए।" लार्ड लेक ने इक़रारनामा पढ़ा। कहा-"टीक है, मैं गवर्नर-जनरल' को इसे भेज दूंगा। लेकिन उस को दिल्ली में कैद रखना ज़रूरी है।" "ऐसा ही होगा महोदय ।" "तो गुड नाइट कर्नल।" “गुड नाइट सर ।"
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हुसैनी कबाड़ी दरियागंज का फ़ैज़ बाज़ार आज तो दिल्ली की नाक बना हुआ है। शानदार इमारतें, चौड़ी सड़कें, नए ढंग की जगमग रोशनी और बढ़िया दुकानों ने तो फ़ैजबाजार को दिल्ली का एक प्रमुख बाज़ार बना ही दिया है, वह नई और पुरानी दिल्ली की कड़ी बन गया है । इसलिए सारा दिन मोटर-बस-रिक्शा और आने जाने वाले आदमियों का तांता लगा रहता है। पर हम जिन दिनों की बात कर रहें हैं उन दिनों को तो अब सौ बरस से भी अधिक बीत चुके हैं। उन दिनों फैज़ बाज़ार एक तंग और गंदा बाज़ार था। उस में ज्यादातर हलवाइयों, नानबाइयों और हज्जामों की दूकानें थीं। सड़क कच्ची, गलियाँ तंग और अन्धेरी थीं। इस समय जहाँ सब्जी मार्केट है-वहाँ एक कच्ची सराय थी। जहाँ ऊँट, घोड़े, खच्चर, गधे, और उनके सवार मुसाफ़िर भरे रहते थे। सरे बाज़ार भटियारनें रोटियाँ पकाती और सौदे पटाती थीं। दूकानों के कोनों पर या तो सस्ती टकियाही रण्डियाँ बैठती थीं या हिजड़े। सड़कों पर न रोशनी का इन्तजाम था, न गंदे पानी के निकलने का । वास्तव में