मराठा संघ एवं पूना का सिंहासन जिन चार स्तंभों पर आधारित था-वे सिंधिया, होल्कर, गायकवाड़ और भोंसले थे । पेशवा मराठा शक्ति का केन्द्र था। अंग्रेजों की कूटनीति की सारी चालें इन चारों स्तम्भों को हिलाने में खर्च हो रही थी। गायकवाड़ अंग्रेजों के जाल में फंस चुवा था। भोंसले किंकर्तव्यविमूढ़ बने थे । होल्कर पर फंदा फेंका जा रहा था। केवल सिंधिया माधोराव ने अपने समर्थ हाथ उन दिनों दक्षिण से उत्तर तक फैला रखे थे । अब्दाली के लौट जाने के बाद मुग़ल साम्राज्य औंधे मुंह गिर गया था। दिल्ली पर अब्दाली के नायब नजीबुल्ला का अदल था । और मुग़ल सम्राट् शाहआलम प्राणों के भार को लिए कभी अवध के नवाब की शरण जाता और कभी इलाहाबाद में अंग्रेज़ों के चरणों में गिरता फिर रहा था। ऐसे ही वे दिन थे जब मराठे सरदारों ने पानीपत की पराजय का परिशोध लेने के इरादे से एक महती सेना ले, उत्तर विजय के मन्सूबों के साथ चम्बल को पार किया । यद्यपि इस महती चमू के सेनापति विसाजी कृष्ण विमोवाला थे, पर नेता माधोजी सिंधिया थे । प्रबलवाहिनी राजपूतों और जाटों के विरोध का दमन करती हुई दिल्ली पहुंची तो नजीबुद्दौला ने तत्क्षण घुटने टेक दिए। उससे सुलह कर मराठा सेनापति तो पूना लौट गया। पर रुहिल्ला सरदारों को पानीपत में अब्दाली का साथ देने का दण्ड देने के लिए होल्कर और महादजी सिंधिया को छोड़ गया। और इन दोनों लोह पुरुषों ने किस तरह निर्दयता से उन पठानों और रुहेलों से बदलो लिया वह इतिहास के पृष्ठों में सुरक्षित है। दोनों सरदार प्रान्तों पर विजय पाते हुए, इटावा तक पहुंच गए। और सिंधिया का दबदबा दिल्ली और आसपास के समूचे इलाके में फैल गया। अब सिंधिया ने बादशाह शाहआलम को अंग्रेजों के पंजे से निकाल कर दिल्ली के तख्त पर बैठाया और आप उसका संरक्षक बन बैठा । डा० जब ११४
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