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सेवासदन
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विशेष मान था। वहाँ उनके सदगुणों की बडी प्रशंसा होती थी। वह उदार न थे, न कृपण। इस विषय में चन्दे की नामवलि उनका मार्ग निश्चय किया करती थी। उनमें एक बड़ा गुण था जो उनकी दुर्बलताओं को छिपाये रहता था। यह उनकी विनोदशीलता थी।

विट्ठलदास का प्रस्ताव सुनकर बोले, महाशय, आप भी बिलकुल शुष्क मनुष्य है। आप में जरा भी रस नहीं। मुद्दत के बाद तो दालमंडी में एक चीज नजर आई, आप उसे भी गायब करनेपर तुले हुए है। कम से कम अबकी रासलीला तो हो जाने दीजिये। राजगद्दी के दिन उसका जल्सा होगा, धूम मच जायगी। आखिर तुर्किन आकर मन्दिर को भ्रष्ट करती है, ब्राह्मणी रहे तो क्या बुरा है, खैर, यह तो दिल्लगी हुई क्षमा कीजियेगा। आपको धन्यवाद है कि ऐसे-ऐसे शुभ कार्य आपके हाथो पूरे होते है। कहाँ है चन्दे की फिहरिस्त?

विट्ठलदास ने सिर खुजलाते हुए कहा, अभी तो मैं केवल सेठ बलभद्र दासजी के पास गया था, लेकिन आप जानते ही है, वह एक बैठकबाज हैं, इधर-उधर की बात करके टाल दिया।

अगर बलभद्रदास ने एक लिखा होता तो यहाँ दो में संदेह न था, दो लिखते तो चार का निश्चित था। जब गुण कही शून्य हो तो गुणनफल शून्य के सिवा और क्या हो सकता था, लेकिन बहाना क्या करते। एक आश्रय मिल गया। बोले महाशय मुझे आपसे पूरी सहानुभूति है। लेकिन बलभद्रदास ने कुछ समझकर ही टाला होगा। जब मैं भी दूर तक सोचता हूँ तो इस प्रस्ताव में कुछ राजनीति का रंग दिखाई देता है, इसमें जरा भो सन्देह नहीं। आप चाहे इसे उस दृष्टि से न देखते हों लेकिन मुझे तो इसमें गुप्त राजनीति भरी हुई साफ नजर आती है। मुसलमानों को यह बात अवश्य बुरी मालूम होगी, वह जाकर अधिकारियों से इसकी शिकायत करेंगें। अधिकारियों को आप जानते ही है, आँख नहीं, केवल कान होते हैं। उन्हें तुरन्त किसी षड्यन्त्र का सन्देह हो जायगा।