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सेवासदन
 


रुपये मिलने में कोई कठिनाई न हुई। सदन हर्षसे फूला न समाया। सन्ध्या को बाजार से एक उत्तम रेशमी साड़ी मोल ली। लेकिन यह शंका हो रही थी कि कही सुमन इसे नापसन्द न करे। वह कुँवर बन चुका था, इसलिए ऐसी तुच्छ भेंट देते हुए झेंपता था। साड़ी जेब में रख बड़ी देर तक घोड़े पर इधर-उधर टहलता रहा। खाली हाथ वह सुमन के यहाँ नित्य बेधड़क चला जाया करता था, पर आज यह भेंट लेकर जाने में संकोच होता था। जब खूब अन्धेरा हो गया तो मन को दृढ़ करके कोठे पर चढ़ गया और साड़ी चुप के से जेब से निकालकर शृंगारदान पर रख दी। सुमन उसके इस विलंब से चिंतित हो रही थी: उसे देखते ही फूल के समान खिल गई, बोली, यह क्यों लाये? सदन ने झेंपते हुए कहा, कुछ नहीं, आज एक साड़ी नजर आ गई, मुझे अच्छी मालूम हुई, ले ली, यह तुम्हारी भेंट है। सुमन मुस्करा कर कहा-आज इतनी देरतक राह दिखाई, क्या यह उसका प्रायश्चित है? यह कहकर उसने साड़ी को देखा। सदन की वास्तविक अवस्था के विचारसे वह बहुमूल्य कही जा सकती थी।

सुमन के मन में प्रश्न हुआ कि इतने रुपये इन्हें मिले कहाँ? कहीं घरसे तो नही उठा लाये? शर्माजी इतने रुपये क्यों देने लगे? या इन्होंने उनसे कोई बहाना करके ठगे होगे या उठा लाये होगे। उसने विचार किया कि साड़ी लौटा दूँ, लेकिन उससे उसके दुःखी हो जाने का भय था। इसके साथही साड़ी को रख लेने से उसके दुरुत्साह के बढ़नेकी आंशका थी। निदान उसने निश्चय किया कि इसे अबकी बार रख लूँ, पर भविष्य के लिये चेतावनी दे दूँ। बोली, इस अनुग्रह से कृतार्थ हुई, लेकिन आपसे मैं भेंट की भूखी नहीं, आपकी यही कृपा क्या कम है कि आप यहाँ तक आने का कष्ट करते है? मैं केवल आपकी कृपादृष्टि चाहती हूँ।

लेकिन जब इस पारितोषिक से सदन का मनोरथ पूरा न हुआ और सुमनके बर्ताव में उसे कोई अन्तर न दिखाई दिया तो उसे विश्वास हो गया गोया कि मेरा उद्योग निष्फल हुआ। वह अपने मन में लज्जित हुआ कि मैं एक तुच्छ भेंट देकर उससे इतने बड़े फलकी आशा रखता हूँ, जमीन से