पत्र पाते ही दौड़ा कि बन पड़े तो उसे सीधी राह पर लाऊँ। इसमें उसी की बदनामी नहीं सारी जाति की बदनामी है। वहाँ पहुँचा तो उसके ठाट देखकर दंग रह गया। वह भोली-भाली स्त्री अब दालमंडी की रानी है; मालूम नहीं इतनी जल्दी वह ऐसी चतुर कैसे हो गई। कुछ देर तक तो चुपचाप मेरी बातें सुनती रही, फिर रोने लगी। मैने समझा, अभी लोहा लाल है, दो-चार चोटे और लगाई, बस आ गई पंजे में। पहले विधवाश्रम का नाम सुनकर घबराई। कहने लगी—मुझे ५०) महीना गुजर के लिये दिलवाइये। लेकिन आप जानते है यहाँ ५०) देन वाला कौन है? मैने हामी न भरी। अन्तमें कहते सुनते एक शर्त पर राजी हुई। उस शर्तको पूरा करना आपका काम है।
पद्मसिंह ने विस्मित होकर विट्ठलदासकी ओर देखा।
विट्ठलदास--घबराइये नही, बहुत सीधी-सी शर्त है, बस यही कि आप जरा देर के लिये उसके पास चले जाँय, वह आपसे कुछ कहना चाहती है। यह तो मुझे निश्चय था कि आपको इसमें कोई आपत्ति न होगी। यह शर्त मजूर कर लो, तो बताइये कब चलने का विचार है। मेरी समझ में सवरे चलें।
किन्तु पद्मसिह विचारशील मनुष्य थे। वह घण्टों सोच विचार के बिना कोई फैसला न कर सकते थे। सोचने लगे कि इस शर्तका क्या अभिप्राय है? वह मुझसे क्या कहना चाहती है? क्या बात पत्र द्वारा न हो सकती थी? इसमें कोई न कोई रहस्य अवश्य है। आज अबुल वफा ने मेरे बग्घी पर से कूद पड़ने का वृत्तांत उससे कहा होगा । उसने सोचा होगा; यह महाशय इस तरह नही आते तो यह चाल चलूँ, देखूँ कैसे नही आते। केवल मुझे नीचा दिखाना चाहती है। अच्छा अगर में जाऊंगा भी पीछ से वह अपना वचन पूरा न करे क्या होगा? यह युक्ति उन्हे अपना गला छुड़ाने के लिय उपयोगी मालूम हुई। बोले, अच्छा, अगर यह फिर जाय तो?
विट्ठल-फिर क्यो जायगी? ऐसा हो सकता है?