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सेवासदन
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शर्माजी के पास नहीं गये थे। यथाशक्ति उनकी निन्दा करने में कोई बात उठा न रक्खी थी, जिस पर कदाचित् अब वह मन से लज्जित थे, तिस पर भगे शर्माजी के पास जाने में उन्हे जरा भी सकोच न हुआ। उनके घर की ओर चले। रात के दस बजे गये थे। अकाशमे बादल उमड़े हुए थे, घोर अन्धकार छाया हुआ था। लेकिन राग-रंग का बाजार पूरी रौनकपर था। अट्टालिकाओ से प्रकाश की किरणे छिटक रही थी। कही सुरीली तानें सुनाई देती थी, कही मधुर हास्य की ध्वनि, कही आमोदप्र-मोदकी बातें। चारो ओर विषय-वासना अपने नगन रूप मे दिखाई दे रही थी। दालमण्डी से निकलकर विट्ठलदास को ऐसा जान पड़ा मानों वह किसी निर्जन स्थान में आ गये। रास्ता अभी बन्द न हुआ था। विट्ठलदास को ज्योंही कोई परिचित मनुष्य। मिल जाता, वह उसे तुरन्त अपनी सफलता की सूचना देते। आप कुछ-समझते हैं, कहाँ से आ रहा हूँ? सुमनबाई की सेवा में गया था। ऐसा मन्त्र पढ़ा कि सिर न उठा सकी, विधवाश्रम में जाने पर तैयार है। काम करनेवाले यों काम किया करते है।

पद्मसिंह चारपाई पर लेटे हुए निद्रादेव की आराधना कर रहे थे कि इतनेमें विट्ठलदास ने आकर आवाज दी। जीतन कहार अपनी कोठरी में बैठा हुआ दिन भर की कमाई का हिसाब लगा रहा था कि यह आवाज कान में आई। बडी फुरतीसे पैसे समेट कर कमर में रख लिए और बोला, कौन है?

विट्ठलदासने कहा अजी में हैं, क्या पण्डितजी सो गये? जरा भीतर जाकर जगा तो दो, मेरा नाम लेना, कहना बाहर खड़े है, बड़ा जरूरी काम है, जरा चले आवे।

जीतन मन में बहुत झुंझलाया, उसका हिसाब अधूरा रह गया, मालूम नही अभी रुपया पूरा होने में कितनी कसर है। अलसाता हुआ उठा, किवाड़ खोले और पंडितजीको खबर दो। वह समझ गये कि कोई नया समचार होगा तभी यह इतनो रात गये आये है। पुरन्त बाहर निकल आये।

विट्ठल--आइये, मैंने आपको बहुत कष्ट दिया, क्षमा कीजियेगा। कुछ समझे, कहाँ से आ रहा हूँ सुमनबाई के पास गया था, आपका