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सेवासदन
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तब वह कौन-सा हृदय है जो रूपराशि जैसे अमूल्य रत्न पर मर न मिटेगा? क्या हम इतना भी नही जानते?

विपक्षी कहता है, यह व्यर्थ की शंका है। सहस्रों युवक नित्य शहरों में घूमते रहते है,किन्तु उनमें से विरला ही कोई बिगड़ता है। वह मानव-पतन का प्रत्यक्ष प्रमाण चाहता है। किन्तु उसे मालूम नही कि वायु की भाँति दुर्बलता भी एक अदृश्य वस्तु है, जिसका ज्ञान उसके कर्म से ही हो सकता है। हम इतने निर्लज्ज, इतने साहसरहित क्यों हैंं? हममें आत्मगौरव का इतना अभाव क्यों है? हमारी निर्जीविता का क्या कारण है? वह मानसिक दुर्बलता के लक्षण है।

इसलिए आवश्यक है कि इन विषभरी नागिनों को आबादी से दूर, किसी पृयक् स्थान मे रखा जाय। तब उन निन्द्य स्थानों की ओर सैर करने को जाते हुए हमें संकोच होगा। यदि वह आबादी से दूर हो और वहाँ घूमने के लिए किसी बहाने की गुजाइश न हो तो ऐसे बहुत कम बेहया आदमी होगे जो इस मीनाबाजार में कदम रखने का साहस कर सकें।

कई महीने बीत गये। वर्षाकाल आ पहुँचा। मेलों-ठेलों की धूम मच गई। सदन बाकी सजधज बनाये मनचले घोड़ेपर चारों ओर घुमा करता। उसके हृदयमे प्रेम लालसा की एक आग-सी जलती रहती अब वह इतना नि:शक हो गया था कि दालमण्डी में घोड़े से उतरकर तम्बोलियों की दूकान पर पान खाने बैठ जाता। वह समझते, यह कोई बिगडा हुआ रईसजादा है। उससे रूप हाटकी नई-नई घटनाओं का वर्णन करते। गाने में कौन अच्छी है और कौन सुन्दरता में अद्वितीय है, इसकी चर्चा छिड़ जाती। इस बाजार में नित्य यह चर्चा रहती। सदन इन बातों को चाव से सुनता। अबतक वह कुछ रसज्ञ हो गया था। पहले जो गजलें निरर्थक मालूम होती थी उन्हें सुनकर अव उसके हृदय का एक एक तार सितार की भाँति गूजने लगता था। संगीत के मधुर स्वर उसे उन्मत्त कर देते, बडी कठिनता से वह अपने को कोठों पर चढने से रोक सकता।

पद्मसिंह सदन को फैशनेबुल तो बनाना चाहते थे, लेकिन उसका