थे, न डालिया ही लगाते थे। जो किसी से लेता नही, वह किसी को देगा कहा से? दारोगा कृष्णचन्द्र की इस शुष्कता को लोग अभिमान समझते थे।
लेकिन इतने निर्लोभ होने पर भो दारोगा जी के स्वभाव में किफायत का नाम न था। वह स्वय तो शौकीन न थे लेकिन अपने घरवालो को आराम देना अपना कर्तव्य समझते थे। उनके सिवा घर में तीन प्रणी और थे, स्त्री और दो लड़कियाँ। दारोगा जी इन लडकियो को प्राण से भी अधिक प्यार करते थे। उनके लिए अच्छे-से-अच्छे कपड़े लाते और शहर से नित्य तरह-तरह की चीजे मँगाया करते। बाजार में कोई तरहदार कपड़ा देख कर उनका जी नही मानता था, लडकियों के लिए अवश्य ले आते थे। घर में सामान जमा करने की उन्हें धुन थी। सारा मकान कुर्सियो, मेजो और आल्मारियो से भरा हुआ था। नगीने के कलमदान, झासी के कालीन, आगरे की दरियां बाजार में नजर आ जाती तो उन पर लट्टू हो जाते। कोई लूट के धन पर भी इस भांति न टूटता होगा। लडकियों को पढ़ाने और सीना-पिरोना सिखाने के लिए उन्होने एक ईसाई लेडी रख ली थी। कभी-कभी स्वय उनकी परीक्षा लिया करते थे।
गंगाजली चतुर स्त्री थी। उन्हें समझाया करती कि जरा हाथ रोक कर खर्च करो। जीवन में यदि और कुछ नही करना है तो लड़कियो का विवाह तो करना ही पड़ेगा। उस समय किसके सामने हाथ फैलाते फिरोगे? अभी तो उन्हे मखमली जूतिया पहनाते हो, कुछ इसकी भी चिन्ता है कि आगे क्या होगा? दरोगा जी इन बातों को हंसी में उडा देते, कहते, जैसे और सब काम चलते हैं वैसे ही यह काम भी हो जायगा। कभी झुंझला कर कहते, ऐसी बात कर के मेरे ऊपर चिन्ता का बोझ मत डालो। इस प्रकार दिन बीतते चले जाते थे। दोनो लड़कियाँ कमल के समान खिलती जाती थी। बडी लड़की सुमन सुन्दर, चञ्चल और अभिमानिनी थी। छोटी लडकी शान्ता भोली, गम्भीर,