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सेवासदन
 


मित्रता थी। उनसे उधार लेने का विचार किया लेकिन आज तक शर्माजी को ऋण माँगने का अवसर नही पड़ा था। बार-बार इरादा करते और फिर हिम्मत हार जाते। कही वह इन्कार कर गये तब? इस इन्कार का भीषण भय उन्हें सता रहा था। वह यह बिल्कुल न जानते थे कि लोग कैसे महाजनों पर अपना विश्वास जमा लेते है। कई बार कलम दवात लेकर रुक्का लिखने बैठे, किन्तु लिखें क्या यह न सूझा। इसी बीच में सदन डिगवी साहब यहाँ से घोडा ले आया। जीन साजका मूल्य ५०) और हो गया। दूसरे दिन रुपये चुका देने का वादा हुआ। केवल रातभर की मोहलत थी। प्रातःकाल रुपये देना परमावश्यक था। शर्माजी की-सी हैसियत के आदमी के लिए इतने रुपये का प्रबन्ध करना कोई मुश्किल न था। किन्तु उन्हें चारो ओर अन्धकार दिखाई देता था। उन्हें आज अपनी क्षुद्रता का ज्ञान हुआ। जो मनुष्य कभी पहाड़ पर नही चढ़ा है, उसका सिर एक छोटे से टीले पर भी चक्कर खाने लगता है। इस दुरवस्था में सुभद्रा के सिवा उन्हें कोई अवलम्ब न सूझा। उसने उनकी रोनी मूरत देखी तो पूछा, आज इतने उदास क्यो हो? जी तो अच्छा है?

शर्माजीने सिर झुकाकर उत्तर दिया, हाँ, जी तो अच्छा है।

सुभद्रा—तो चेहरा क्यों उतरा है?

शर्मा— क्या बताऊँ कुछ कहा नही जाता, सदन के मारे हैरान हूँ। कई दिन से घोड़े की रट लगाये हुए था। आज डिगबी साहबके यहाँ से घोड़ा ले आया, साढ़े चार सौ रुपये के मत्थे डाल दिया।

सुभद्रा ने विस्मित होकर कहा, अच्छा यह सब हो गया और मुझे खबर ही नहीं।

शर्मा—तुमसे कहते हुए डर मालूम होता था।

सुभद्रा—डर की कौन बात थी? क्या में सदन की दुश्मन थी जो जलभुन जाती? ... उसके खेलने खाने के क्या और कोई दिन आवेंगे? कौन बड़ा खर्च है, तुम्हें ईश्वर कुशल से रखें, ऐसे चार-पाँच सौ रुपये