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सेवासदन
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बलभद्रदास जो अब तक मुझसे कन्नी काटते फिरते थे, इस लावण्यमयी सुन्दरी पर भ्रमर की भाति मडलायेगे।

सुमन की दशा उस लोभी डाक्टर की सी थी जो अपने किसी रोगी मित्र को देखने जाता है और फीस के रुपये अपने हाथो से नही लेता। संकोचवश कहता है, इसकी क्या जरूरत है लेकिन जब रुपये उसकी जेब में डाल दिये जाते है तो हर्ष से मुस्कुराता हुआ घर की राह लेता है।


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पद्मसिंह के एक बड़े भाई मदनसिह थे। वह घर का कामकाज देखते थे। थोडी़ सी जमीदारी थी, कुछ लेन-देन करते थे। उनके एक ही लड़का था, जिसका नाम सदनसिंह था। स्त्री का नाम भामा था।

माँ-बाप का एकलौता लड़का बड़ा भाग्यशाली होता है। उसे मीठे पदार्थ खूब खाने को मिलते है, किन्तु कड़वी ताड़ना कभी नही मिलती। सदन बाल्यकाल मे ढोठ, हठी और लड़ाका था। वयस्क होने पर वह आलसी, क्रोधी और बड़ा उद्दड हो गया। मॉ-बाप को यह सब मंजूर था। वह चाहे कितना ही बिगड़ जाय पर आँख के सामने से न टले। उससे एक दिन का विछोह भी न सह सकते थे। पद्मसिंह ने कितनी ही बार अनुरोध किया कि इसे मेरे साथ जाने दीजिये, मैं इसका नाम किसी अंग्रेजी मदरसे में लिखा दूँगा, किन्तु माँ-बाप ने कभी स्वीकार नही किया। सदन ने अपने कस्बेही के मदरसे में उर्दू और हिन्दी पढ़ी थी। भामा के विचार मे उसे इससे अधिक विद्या की जरूरत ही नही थी। घर मे खाने को बहुत है, वन-वन की पत्ती कौन तोड़वाये? बला से न पढ़ेगा, आंखो से देखते तो रहेगे।

सदन अपने चाचा के साथ जाने के लिए बहुत उत्सुक रहता था। उनके साबुन, तोलिये, जूते, स्लीपर, घड़ी और कालर को देखकर उसका जी बहुत लहराता। घर मे सब कुछ था; पर यह फैशन की सामग्रियाँ कहाँ? उसका जी चाहता, मै भी चचा की तरह कपडो़ से सुसज्जित होकर टमटमपर हवा खाने निकलूँ। वह अपने चचा का बड़ा सम्मान करता था। उनकी कोई बात