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सेवासदन
५५
 


भर को किसी-न-किसी तरह कमा लूंगी। कंपडे भी सीऊंगी तो खाने भर को मिल जायगा, फिर किसी की धौस क्यो सहूँ? इनके यहाँ मुझे कौन-सा सुख था? व्यर्थ मे एक बेडी पैरों में पड़ी हुई थी और लोक-लाज से वह मुझे रख भी ले तो उठते-बैठते ताने दिया करेगे। बस चलकर एक मकान ठीक कर लू, भोली क्या मेरे साथ इतना भी सलूक न करेगी? वह मुझे अपने घर बार-बार बुलाती थी, क्या इतनी दया भी न करेगी?

अमोला चली जाऊँ तो कैसा हो? लेकिन वहाँ कौन अपना बैठा हुआ है। अम्मां मर गई। शान्ता है, उसीका निर्वाह होना कठिन है, मुझे कौन पूछने वाला है। मामी जीने न देंगी। छेद-छेदकर मार डालेगी। चलू भोली से कहूँ, देखू क्या कहती है। कुछ न हुआ तो गंगा तो कही नही गयी है? यह निश्चय करके सुमन भोली के घर चली। इधर-उधर ताकती जाती थी कि कही गजाधर न आता हो।

भोली के द्वारपर पहुँचकर सुमन ने सोचा, इसके यहाँ क्यो जाऊँ? किसी पड़ोसिन के घर जाने से काम न चलेगा? इतने मे भोली ने उसे देखा ओर इशारे से ऊपर बुलाया। सुमन ऊपर चली गई।

भोली का कमरा देखकर सुमन की आंखें खुल गई। एक बार वह पहले भी गई थी, लेकिन नीचे के आंगन से ही लौट गई थी। कमरा फर्श, मसनद, चित्रो और शीशे के सामानो से सजा हुआ था। एक छोटी सी चौकीपर चाँदी का पानदान रक्ख हुआ था। दूसरी चौकीपर चाँदी की एक तश्तरी और चाँदी का एक ग्लास रखा हुआ था। सुमन यह सामान देखकर दंग रह गई।

भोली ने पूछा आज यह सन्दूकची लिए इधर कहाँ से आ रही थी?

सुमन-यह रामकहानी फिर कहूँगी, इस समय तुम मेरे ऊपर इतनी कृपा करो कि मेरे लिए कही अलग एक छोटा-सा मकान ठीक करा दो। मैं उसमे रहना चाहती हूँ।

भोली ने विस्मित होकर कहा, यह क्यो, शौहर से लडा़ई हो गई है?

सुमन--नही, लडा़ई की क्या बात है? अपना जी ही तो है।