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सेवासदन
५३
 


यहाँ से चली जाय। जरा आदमी की तरह बोलना, लाठी मत मारना। खूब समझाकर कहना कि उनका कोई वश नही है।

जीतन बहुत प्रसन्न हुआ। उसे सुमन से बड़ी चिढ़ थी, जो नौकरों को उन छोटे मनुष्यों से होती है, जो उनके स्वामी के मुंह लगे होते है। सुमन की चाल उसे अच्छी नही लगती थी। बुड्ढे लोग साधारण बनाव-सिंगार को भी सन्देह की दृष्टि से देखते है। वह गँवार था। काले को काला कहता था, उजले को उजला, काले को उजला कहने का ढंग उसे न आता था। यद्यपि शर्म्माजी ने समझा दिया था कि सावधानी से बातचीत करना, किन्तु उसने जाते-ही जाते सुमन का नाम लेकर जोर से पुकारा। सुमन शर्म्माजी के लिए पान लगा रही थी। जीतन की आवाज सुनकर चौक पडी़ और कातर नेत्रो से उसकी ओर ताकने लगी।

जीतन ने कहा, ताकती क्या हो, वकील साहब का हुक्म है कि आज ही यहाँ से चली जाओ। सारे देशभर में बदनाम कर दिया। तुमको लाज नही है, उनको तो नाम की लाज है। बाँड़ा आप गये चार हाथ की पगहिया भी लेते गये।

सुभद्रा के कान में भी भनक पडी़। आकर बोली, क्या है जीतन? क्या कह रहे हो?

जीतन--कुछ नही, सरकार का हुक्म है कि यह अभी यहां से चली जायें। देशभर से बदनामी हो रही है।

सुभद्रा--तुम जाकर जरा उन्ही को यहां भेज दो।

सुमन की आंखो मे आँसू भरे थे। खड़ी होकर बोली, नही बहूजी। उन्हें क्यों बुलाती हो? कोई किसी के घर में जबर्दस्ती थोड़े ही रहता है, मैं अभी चली जाती हूं। अब इस चौखट के भीतर फिर पाँव न रखूँगी। विपत्ति मे हमारी मनोवृत्तियाँ बडी प्रबल हो जाती है। उस समय बेमुरौवती घोर अन्याय प्रतीत होती है और सहानुभूति असीम कृपा। सुमन को शर्म्माजी से ऐसी आशा न थी। उस स्वाधीनता के साथ जो आपत्तिकाल मे हृदय पर अधिकार पा जाती है उसने शर्म्माजी को दुरात्मा, भीरु, दयाशून्य