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सेवासदन
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सुमन ने कातर भाव से कहा, वकील साहब के घर को छोड़कर में और कही नही गई, तुम्हें विश्वास न हो तो आप जाकर पूछ लो। वही चाहे जितनी देर लगी हो। गाना हो रहा था, सुभद्रा देवी ने आने नही दिया।

गजाधर ने लांछनायुक्त शब्दो मे कहा, अच्छा, तो अब वकील साहब से मन मिला है, यह कहो, फिर भला मजूर की परवाह क्यो होने लगी?

इस लांछना ने सुमन के हृदय पर कुठाराघात का काम किया। झूठा इलजाम कभी नही सहा जाता। वह सरोष होकर बोली, कैसी बातें मुंह से निकालते हो, हक-नाहक एक भले मानस को बदनाम करते हो। मुझे आज देर हो गई है मुझे जो चाहो कहो, मारो, पीटो, वकील साहब को क्यो बीच में घसीटते हो? वह बेचारे तो, जबतक मै घर में रहती हूँ अन्दर कदम नही रखते।

गजाघर बोला, चल छोकरी, मुझे न चरा, ऐसे-ऐसे कितने भले आदमियों को देख चुका हूँ। वह देवता है, उन्ही के पास जा। यह झोपड़ी तेरे रहने योग्य नही है। तेरे हौसले बढ़ रहे है। अब तेरा गुजर यहाँ न होगा।

सुमन देखती थी कि बात बढती जाती है। यदि उसकी बात किसी तरह लोौट सकतीं तो उन्हें लौटा लेती, किन्तु निकला हुआ तीर कहाँ लौटता है? सुमन रोने लगी और बोली, मेरी आंखें फूट जाएँ, अगर मैंने उनकी तरफ ताका भी हो। मेरी जीभ गिर जाय अगर मै ने उनसे एक बात की हो। जरा मन बहलाने सुभद्रा के पास चली जाती हूंँ, अब मना करते हो, न जाऊँगी।

मन में जब एक बार भ्रम का प्रवेश हो जाता है तो उसका निकलना कठिन हो जाता है। गजाधर ने समझा कि सुमन इस समय केवल मेरा क्रोध शान्त करने के लिए यह नम्रता दिखा रही है। कटुतापूर्ण स्वर से बोला, नही, जाओगी क्यों नहीं। वहाँ ऊँची अटारी सैर को मिलेगी, पकवान खाने को मिलेंगे, फूलों की सेज पर सोओगी, नित्य राग-रंग की घूम रहेगी।

व्यंग और क्रोध में आग और तेल का संबंध है। व्यंग हृदय को इस प्रकार विदीर्ण कर देता है जैसे छेनी बर्फ के टुकड़े को। सुमन क्रोध से विह्वल