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सेवासदन
 


जल रही थी, उसके धुंए से कोठरी भरी हुई थी और गजाधर हाथ मे डण्डा लिये चित्त पडा़ जोर से खराठे ले रहा था। सुमन का हृदय काँप उठा किवाड खटखटाने का साहस न हुआ।

पर इस समय जाऊँ कहाँ? पद्मसिंह के घर का दरवाजा भी बन्द हो गया होगा, कहार सो गये होगे। बहुत चीखने-चिल्लाने पर किवाड तो खुल जायगी, लेकिन वकील साहब अपने मन में न जाने क्या समझे नहीं, वहाँ जाना उचित नही, क्यो न यही बैठी रहूँ। एक बज ही गया है, तीन चार घण्टे मे सबेरा हो जायगा। यह सोचकर वह बैठ गई, किन्तु यह घडका लगा हुआ था कि कोई मुझे इस तरह यहाँ बैठे देख ले तो क्या हो? समझेगा कि चोर है, घातमें बैठा है। सुमन वास्तव मे अपने ही घर में चोर बनी हुई थी।

फागुन में रात को ठंडी हवा चलती है। सुमन की देहपर एक फटी हुई रेशमी कुरती थी। हवा तीर के समान उसकी हड्डियो में चुभी जाती थी। हाथ-पाँव अकड़ रहे थे। उसपर नीचे की नाली से ऐसी दुर्गध उठ रही थी कि साँस लेना कठिन था। चारो ओर तिमिर मेघ छाया हुआ था, केवल भोली बाई के कोठे पर से प्रकाश की रेखाएँ अन्धेरी गली की तरफ दया की स्नेह-रहित दृष्टि से ताक रही थी।

सुमन ने सोचा मै कैसी हतभागिनी हूँ। एक वह स्त्रियाँ है जो आराम से तकिये लगाये सो रही है, लौंडियाँ पैर दवाती है। एक में हैं कि यहाँ बैठी हुई अपने नसीव को रो रही हूँ। मै यह सब दुःख क्यो झेलती हूँ? एक झोपड़ी में टूटी खाटपर सोती हूँ, रूखी रोटियाँ खाती हूं, नित्य घुडकियाँ सुनती हूं, क्यो? मर्यादा पालन के लिए ही न? लेकिन संसार मेरे इस मर्यादा-पालन को क्या समझता है? उसकी दृष्टि में इसका क्या मूल्य है? क्या यह मुझ से छिपा हुआ है? दशहरे के मेले में, मोहर्रम के मेले में फूनवाग में, मन्दिरो में, सभी जगह तो देख रही हूँ। आजतक मैं समझती थी कि कुचरित्र लोग ही इन रमणियो पर जान देते है, किन्तु आज मालूम हुआ कि उनकी पहुंच सुचरित्र और सदाचारशील पुरुषों मे भी कम नही