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सेवासदन
३९
 


सुभद्रा-सी सुशील स्त्री और पद्मसिह सरीखे सज्जन मनुष्य संसार में और न थे।

एकबार सुभद्रा को ज्वर आने लगा। सुमन कभी उसके पास से न टलती। अपने घर एक क्षण के लिए जाती और कच्चा-पक्का खान बनाकर फिर भाग आती पर गजाधर उसकी इन बातो से जलता था। उसे सुमन पर विश्वास न था। वह उसे सुभद्रा के यहां जाने से रोकता था, पर सुमन उसका कहना न मानती थी।

फागुन के दिन थे। सुमन को यह चिन्ता हो रही थी कि होली के लिए कपडो का क्या प्रबन्ध करे? गजाधर को इधर एक महीने से सेठजी ने जवाब दे दिया था। उसे अब केवल पन्द्रह रुपयो का ही आधार था। वह एक तजेब की साडी और रेशमी मलमलकी जाकेट के लिए गजाधर से कई बार कह चुकी थी, पर गजाधर हूं-हाँ करके टाल जाता था। वह सोचती यह पुराने कपड़े पहनकर सुभद्रा के घर होली खेलने कैसे जाऊँगी?

इसी बीच सुमन को अपनी माता के स्वर्गवास का शोक समाचार मिला। सुमन को इसका उतना शोक न हुआ जितना होना चाहिए था, क्योकि उसका हृदय अपनी माता की ओर से फट गया था। लेकिन होली के लिए नये और उत्तम वस्त्रों की चिन्ता से निवृत्त हो गई। उसने सुभद्रा से कहा- बहूजी, अब में अनाथ हो गई। अब गहने कपडे की तरफ ताकने को जी नही चाहता। बहुत पहन चुकी। इस दु:ख ने सिंगार-पटार की अभिलाषा ही नही रहने दी। जो अधम है, शरीर से निकलता नही, लेकिन हृदय पर जो कुछ बीत रही है वह मैं ही जानती हूं। अपनी सहचरियो से भी उसने ऐसी ही शोकपूर्ण बाते की। सब की सब उसकी मातृभक्ति की प्रशंसा करने लगी।

एक दिन वह सुभद्रा साथ बैठी हुई रामायण पढ़ रही थी कि पद्मसिंह प्रसन्नचित्त घर में आकर बोले आज वाजी मार ली।

सुभद्रा ने उत्सुक होकर कहा-—सच?

पद्मसिह—अरे क्या अबकी भी सन्देह था?