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सेवासदन
३७
 


रहती हूँ। यह कैसी भाग्यवान् स्त्री है! कैसा देवरूप पुरुष है! यह न आ जाते तो वह निर्दयी चौकीदार न जाने मेरी क्या दुर्गति करता। कितनी सज्जनता है कि मुझे भीतर बिठा दिया और आप कोचवान के साथ जा बैठे! वह इन्हीं विचारो में मग्न थी कि उसका घर आ गया। उसने सकुचाते हुए सुभद्रा से कहा, गाड़ी रुकवा दीजिए मेरा घर आ गया।

सुभद्रा ने गाड़ी रुकवा दी। सुमन ने एकबार भोली बाई के मकान की ओर ताका। वह अपने छज्जेपर टहल रही थी। दोनों की आंँखे मिलीं, भोली ने मानो कहा, अच्छा यह ठाठ है। सुमन ने जैसे उत्तर दिया, अच्छी तरह देख लो यह कौन लोग है। तुम मर भी जाओ तो इस देवी के साथ बैठना नसीब न हो।

सुमन उठ खडी हुई और सुभद्रा की ओर सजल नेत्रो से देखती हुई बोली; इतना प्रेम लगाकर बिसरा मत देना। मेरा मन लगा रहेगा।

सुभद्रा ने कहा नही बहिन, अभी तो तुमसे कुछ बात भी न करने पाई। में तुम्हे कल बुलाऊॅगी।

सुमन उतर पड़ी। गाड़ी चली गई। सुमन अपने घर में गई तो उसे ऐसा मालूम हुआ मानो कोई आनन्दमय स्वपन देखकर जागी है।

गजाधर ने पूछा, यह गाडी किसकी थी?

सुमन-यही के कोई वकील है। बेनीबाग मे उनकी स्त्री से भेट हो गई। जिद्द करके गाड़ी पर बैठा लिया। मानती ही न थी|

गजाधर-—तो क्या तुम वकील के साथ बैठी थी?

सुमन-कैसी बातें करते हो? वह बेचारे तो कोचवान के साथ बैठे थे।

गजाधर—तभी इतनी देर हुई।

सुमन—दोनो सज्जनता के अवतार है।

गजाधर—अच्छा, चल के चूल्हा जलाओ, बहुत बखान हो चुका।

सुमन-—तुम वकील साहब को जानते तो होगे?

गजाधर—इस मुहल्ले मे तो वही एक पद्मसिंह वकील है? वही रहे होगे।