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सेवासदन
३५१
 


लौट आना। मैं चलता हूँ। गाडी छोड़े जाता हूँ। रास्ते में कोई सवारी किराये की कर लूँगा।

सुभद्रा— तो इसकी क्या आवश्यकता है। तुम यहीं बैठे रहो, मैं अभी लौट आती हैं।

पद्म--(गाड़ी से उतरकर) मैं चलता हूँ, तुम्हारा जब जी चाहे आना।

सुभद्रा इस हीलेहवाले का कारण समझ गई। उसने 'जगत' में कितनी बार 'सेवासदन' को प्रशंसा पढ़ी थी। पण्डित प्रभाकरराव की इन दिनों सेवा सदनपर बड़ी दया दृष्टि थी। अतएव सुभद्रा को इस आश्रम से प्रेम-सा हो गया था और सुमनके प्रति उसके हृदय में भक्ति उत्पन्न हो गई थी, पर सुमन को इस नई अवस्था में देखना चाहती थी। उसको आश्चर्य होता था कि सुमन इतने नीचे गिरकर कैसे ऐसी विदुषी हो गई कि पत्रों में उनकी प्रशंसा छपती है। उसके जी में तो आया कि पण्डितजी को खूब आड़े हाथो ले, पर साईस खड़ा था, इसलिए कुछ न बोल सकी। गाड़ी से उतरकर आश्रम में दाखिल हुई।

वह ज्योंही बरामदे में पहुँची कि एक स्त्री ने भीतर जाकर सुमन को उसके आने की सूचना दी और एक क्षण में सुभद्रा ने सुमनको आते देखा। वह उन केशहिना; आभूषणविहीनी सुमन को देखकर चकित हो गई। उसमें न वह कोमलता थी, न वह चपलता, न वह मुस्कुराती हुई आँखे, न हँसते हुए होठ है। रूप-लावण्य की जगह पवित्रता की ज्योति झलक रही थी।

सुमन निकट जाकर सुभद्रा के पैरों पर गिर पड़ी और सजल नयन होकर बोली— बहूजी, आज, मेरै धन्य भाग्य है कि आपको यहाँ देख रही हूँ।

सुभद्रा की आँख भर आयी। उसने सुमन को उठाकर छातीसे लगा लिया और गद्गद स्वर से कहा— बाईजी, आने का तो बहुत जी चाहता था, पर आलस्यवश अबतक न आ सकी थी।

सुमन— शर्माजी भी हैं या आप अकेली ही आई हैं?

सुभद्रा— साथ तो थे,पर उन्हें देर होती थी, इसलिए वह दूसरी