३४६ | सेवासदन |
दिखाई दिया। उसके अन्तःकरण में एक अद्भुत श्रद्धा और भक्तिकाभाव उदय हुआ। उसने सोचा, इनकी आत्मा में कितनी दया और प्रेम है। हाय! मेने ऐसे नर-रत्न का तिरस्कार किया। इनकी सेवामें रहती तो मेरा जीवन सफल हो गया होता। बोली, महराज आप मेरे लिये ईश्वर रूप है, आपके ही द्वारा मेरा उद्धार हो सकता है। मैं अपना तनमन आपकी सेवा में अर्पण करती हूँ। यही प्रतिज्ञा एक बार मैंने की थी, पर अज्ञानतावश उसका पालन न कर सकी। वह प्रतिज्ञा मेरे हृदय से न निकली थी। आज में सच्चे मन से यह प्रतिज्ञा करती हूंँ। आपने मेरी बाँह पकड़ी थी, अब यद्यपि मैं पतित हो गई हूँ, पर आप ही अपनी उदारता से मुझे क्षमादान दीजिये और मुझे सन्मार्गपर ले जाइये।
गजानन्द को इस समय सुमन के चेहरे पर प्रेम और पवित्रता की छटा दिखाई दी। वह व्याकुल हो गये। वह भाव, जिन्हें उन्होने बरसो से दबा रक्खा था, जाग्रत होने लगे। सुख और आनन्दी नवीन भावनाएँ उत्पन्न होने लगी। उन्हें अपना जीवन शुष्क, नीरम, आनन्द विहीन जान पड़ने लगा। वह कल्पनाओ से भयभीत हो गये। उन्हें शंका हुई कि यदि मेरे मन मे यह विचार ठहर गये तो मेरा संयम वैराग्य और सेवा-व्रत इसके प्रवाह में तृण के समान बह जायेंगे। वह बोल उठे, तुन्हें मालूम है कि यहांँ एक अनाथालय खोला गया है?
सुमन--हांँ, इसकी कुछ चर्चा सुनी तो थी।
गजानन्द-—इस अनाथालय में विशेषकर वही कन्याये है जिन्हें वेश्याओंने हमें सौंपा है। कोई ५० कन्याएँ होगी।
सुमन--यह आपके ही उपदेश का फल है।
गजानन्द--नहीं, ऐसा नहीं। इसका सपूर्ण श्रेय पंडित पद्मसिंह को है, मैं तो केवल उनका सेवक हूँ। इस अनाथालय के लिये एक पवित्र आत्मा की आवयकता है और तुम्ही वह आत्मा हो। मैंने बहुत, ढूँढापर कोई ऐसी महिला न मिली जो यह काम प्रेम भापने जो कन्याओ का माता की भांँति पालन करे और अपने प्रेम में अकेली उनकी माताओं का