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सेवासदन ३४३

में जाओ और उनका आशीर्वाद तुम्हारा उद्धार करेगा। कलियुग में परमात्मा इसी दु:ख सागर में वास करते है।

सुमन की आँखे खुल गई। उसने इधर-उधर देखा उसे निश्चय था कि मैं जागती थी। इतनी जल्दी स्वामीजी कहाँ अदृश्य हो गये। अकस्मात् उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि सामने पेड़ो के नीचे स्वामीजी लालटेन लिये खड़े है। वह उठकर उनकी ओर चली। उसने अनुमान किया था कि वह वृक्ष समूह १०० गज के अन्तर पर होगा, पर वह सौ के बदले दो सौ, तीन सौ, चार सौ गज चली गई और वह वृक्षपुंंज और उनके नीचे स्वामीजी लालटेन लिये हुए उतनी ही दूर खड़े थे।

सुमन को भ्रम हुआ, मैं सो तो नही रही हूँ? यह कोई स्वप्न तो नहीं है? इतना चलनेपर भी वह उतनी ही दूर है। उसने जोरसे चिल्लाकर कहा--महाराज आती हूँ, आप जरा ठहर जाइये।

उसके कानो में शब्द सुनाई दिये, चली आओ मे खड़ा हूँ।

सुमन फिर चली, पर दो सौ कदम चलने पर वह थककर बैठ गई। वह वृक्ष समूह और स्वामीजी ज्यो-के-त्यों सामने सौ गजकी दूरी पर खड़े थे।

भय से सुमन के रोएँ खड़े हो गये। उसकी छाती धड़कने लगी और पैर थरथर काँपने लगे। उसने चिल्लाना चाहा, पर आवाज न निकली।

सुमन ने सावधान होकर विचार करना चाहा कि यह क्या रहस्य है, में कोई प्रेत लीला तो नहीं देख रही हैं, लेकिन कोई अज्ञात शक्ति उसे उधर खीचे लिये जाती थी, मानो इच्छा-शक्ति मन को छोड़कर उसी रहस्यके पीछे दौड़ी जाती है।

सुमन फिर चली। अब वह शहर के निकट आ गई थी। उसने देखा कि स्वामीजी एक छोटी सी झोपड़ी में चले गये और वृक्ष-समूह अदृश्य हो गया। सुमनने समझा, यही उनकी कुटी है। उसे बड़ा धीरज हुआ। अब स्वामीजी से अवश्य भेट होगी। उन्ही से यह रहस्य खुलेगा।

उसने कुटी के द्वारपर जाकर कहा, स्वामीजी, मैं हूँ सुमन