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सेवासदन
 

सुमन ने सावधान होकर उत्तर दिया, उसमें कोई छूत तो नही लगी है! शोलस्वभाव में वह किसी से घटकर नही, मान-मर्यादा मे किसी से कम नही, फिर उससे बातचीत करने में मेरी क्या हेठी हुई जाती है? वह चाहे तो हम जैसो को नौकर रख ले।

गजाघर-—फिर तुमने वही बेसिर-पैर की बातें की। मान-मर्यादा वन से नहीं होती।

सुमन—पर घर्म से तो होती है?

गजाधर--तो वह बडी धर्मात्मा है?

सुमन-—यह भगवान जानें, पर धर्मात्मा लोग उसका आदर करते है। अभी रामनवमी के उत्सव में मैने उन्हें बडे-बडे पण्डितो और धर्मात्माओ की मण्डलो में गाते देखा। कोई उससे घृणा नही करता था। सब उसका मुह देख रहे थे। लोग उसका आदर सत्कार ही नही करते थे, बल्कि उससे बातचीत करने में अपना अहोभाग्य समझते थे। मन में वह उससे घृणा करते थे या नही, यह ईश्वर जाने पर देखने मे तो उस समय भोली ही भोली दिखाई देती थी। संसार तो व्यवहारो को ही देखता है, मनकी बात कौन किसकी जानता है।

गजाधर--तो तुमने उन लोगो के बड़े-पड़े तिलक छापे देखकर ही उन्हें धर्मात्मा समझ लिया? आजकल धर्म तो धूर्तो का अड्डा बना हुआ है। इस निर्मल सागर में एक-एक मगरमच्छ पड़े हुए है। भोले-भाले भक्तों को निगल जाना उनका काम है। लम्बी लम्बी जटाएँ लम्बे-लम्बे तिलक छापे और लम्बी-लम्बी दाढियाँ देखकर लोग धोखे में आ जाते है, पर वह सबके सब महापाखण्डी, धर्म के उज्ज्वल नाम को कलंकित करने वाले, घर्म के नाम पर टका कमानेवाले, भोग-विलास करनेवाले पापी है। भोली का आदर सम्मान उनके यहाँ न होगा तो किसके यहां होगा?

सुमन ने सरल भाव से पूछा, फुसला रहे हो या सच कह रहे हो?

गजाघर ने उसकी ओर करुण दुष्टि से देखकर कहा, नही सुमन, वास्तव में यही बात है। हमारे देश मे सज्जन मनुष्य बहुत कम है, पर