यह पृष्ठ प्रमाणित है।
सेवासदन
३३९
 

वह पाँव दबाती हुई, धीरे-धीरे झोपड़े के पिछवाड़े आई और कान लगाकर सुनने लगी कि देखूँ यह लोग मेरी कुछ चर्चा तो नहीं कर रहे है? आधे घण्टे तक वह इसी प्रकार खड़ी रही। भामा और सुभद्रा इधर-उधर की बात कर रही थी। अन्त मे भामा ने कहा, क्या अब इसकी बहन यहाँ नहीं रहती?

सुभद्रा — रहती क्यों नहीं, वह कही जाने वाली है?

भामा—दिखाई नहीं देती।

सुभद्रा—किसी काम से गई होगी। घर का सारा काम तो वही सभाले हुए है।

भामा—आवे तो कह देना कि कही बाहर लेट रहे। सदन उसी का बनाया खाता होगा।

शान्ता सौरीगृह से बोली, नहीं अभी तक तो मैं ही बनाती रही हूँ, आज कल वह अपने हाथ से बना लेते है।

भामा—तब भी घड़ा बरतन तो वह छूती ही रही होगी। यह घड़ा फेकवा दो, बरतन फिर से धुल जायँगे।

सुभद्रा—बाहर कहाँ सोने की जगह है?

भामा—हो चाहे न हो, लेकिन यहाँँ से उसे सोने न दूँँगी। वैसी स्त्री का क्या विश्वास?

सुभद्रा—नहीं दीदी, वह अब वैसी नहीं है। वह बड़े नेम धरम से रहती है।

भामा—चलो, वह बड़ी ने नेम-धरम से रहने वाली है। सात घाट का पानी पीके आज नेमवाली बनी है। देवता की मूरत टूटकर फिर नहीं जुड़ती। वह अब देवी बन जाय तब भी मैं उसका विश्वास न करूँ।

सुमन इससे ज्यादा न सुन सकी। उसे ऐसा मालूम हुआ मानो किसी ने लोहा लाल करके उसके हृदय में चुभा दिया। उल्टे पाँँव लौटी और उसी अन्धकार में एक ओर चल पड़ी।

अन्धेरा खूब छाया था, रास्ता भी अच्छी तरह न सूझता था, पर