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सेवासदन
 


गये। वह आगे न बढ़ सकी। उसके पैरो में बेड़ी-सी पड़ गई। उसे मालूम हो गया कि अब यहाँ मेरे लिये स्थान नहीं, है, अब यहाँ से मेरा नाता टूटता है। वह मूर्तिवत खड़ी सोचने लगी कि कहाँ जाऊँँ?

इधर एक मास से शान्ता और सुमन में बहुत मनमुटाव हो गया था। वही शान्ता तो विधवा आश्रम में दया और शान्ति की मूर्ति बनी हुई थी, अब सुमन को जलाने और रुलाने पर तत्पर रहती थी। उम्मेदवारी के दिनो में हम जितने विनयशील और कर्तव्यपरायण होते है, उतने ही अगरजगह पाने पर बने रहे तो हम देवतुल्य हो जायँ। उस समय शान्ता को सहानुभूति की जरूरत थी, प्रेम की आकांक्षा ने उसके चित्त को उदार, कोमल, नम्र बना दिया था, पर अब अपना प्रेमरत्न पाकर किसी दरिद्र से घनी हो जाने वाले मनुष्य की भाँति उसका हृदय कठोर हो गया था। उसे यह भय खाये जाता था कि सदन कही सुमन के जाल में न फँस जाय। सुमन के पूजा पाठ, श्रद्धा-भक्ति का उसकी दृष्टि में कुछ भी मूल्य न था। वह इसे पाखण्ड समझती थी। सुमन सिर में तेल मलने या साफ कपड़ा पहनने के लिये तरस जाती थी, शान्ता इसे समझती थी। वह सुमन के आचार व्यवहार की बड़ी तीव्र दृष्टि से देखती रहती थी। सदन से जो कुछ कहना होता सुमन शान्ता से कहती, यहाँ तक कि शान्ता भोजन के समय भी रसोई में किसी न किसी बहाने आ बैठती थी। वह अपने प्रसवकाल से पहले सुमन को किसी भाँति वहाँ से टालना चाहती थी, सौरीगृह हमे बन्द होकर बह सुमन की देख-भाल न कर सकेगी। उसे और सब कष्ट सहना मंजूर था, पर यह दाह न सही जाती थी।

लेकिन सुमन सब कुछ देखते हुए भी न देखती थी, सब कुछ सुनते हुए भी कुछ न सुनती थी। नदी में डूबते हुए मनुष्य के समान वह इस तिनके के सहारे को भी छोड़ न सकती थी। वह अपना जीवन मार्ग स्थिर न कर सकती थी, पर इस समय सदन के माता पिता को यहाँ देखकर उसे यह सहारा छोड़ना पड़ा, इच्छा शक्ति जो कुछ न कर सकती थी वह अवस्था में कर दिखाया।