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सेवासदन
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पर बैठा हुआ गंगा की ओर देख रहा है। उसके हृदय में भी विचार की लहरे उठ रही है। ना! वह लोग न आवेगे। आना होता तो आज छः दिन बीत गये, आ न जाते? यदि मैं जानता कि वे न आवेगे तो मैं चचा से भी यह समाचार न कहता। उन्होंने मुझे मरा हुआ समझ लिया है, वह मुझसे कोई सरोकार नहीं रखना चाहते, मै जीऊँ-या मरूँ, उन्हें परवाह नहीं है। लोग ऐसे अवसर पर अपने शत्रुओं के घर भी जाते, है, प्रेम से न आते, दिखावे के ही लिये आते, व्यवहार के तौर-पर आते, मुझे मालूम तो हो जाता कि संसार में मेरा कोई है। अच्छा न आवे, इस काम से छुट्टी मिली तो एक बार मैं स्वयं जाऊँगा और सदा के लिये निपटारा कर आऊँगा। लड़का कितना सुन्दर है, कैसे लाल-लाल ओठ है, बिल्कुल मुझी को पड़ा है, हाँ, आँखे शान्ता की है। मेरी ओर कैसे ध्यान से युक-टुक ताकता था। दादा को तो मैं नहीं कहता, लेकिन अम्मा उसे देखे तो एक बार गोद में अवश्य ही ले ले। एकाएक सदन के मन में यह विचार हुआ, अगर मैं मर जाऊँ तो क्या हो? इस बालक का पालन कौन करेगा? कोई नहीं, नहीं, मैं मर जाऊँ तो दादा को अवश्य उसपर दया आवेगी। वह उतने निर्दय नहीं हो सकते। जरा देखें, सेविंग बैंक में मेरे कितने रुपये है। अभी एक हजार भी पूरे नहीं। ज्यादा नहीं, अगर ५०) महीना भी जमा करता जाऊँ तो सालभर में ६००J हो जायेगे। ज्योंही दो हजार पूरे हो जायेगें घर बनवाना शुरू कर दूँगा। दो कमरे सामने, पाँच कमरे भीतर, दरवाजे पर मेहराबदार सायवान पटावके ऊपर दो कमरे हों तो मकान अच्छा हो। कुरसी ऊँची रहने से घर की शोभा बढ़ जाती है। मैं कम-से कम पाँच फटकी कुरसी दूँगा।

सदन इन्हीं कल्पनाओं का आनन्द ले रहा था। चारों ओर अन्धेरा छाने लगा था कि इतने में उसने सड़क की ओर से एक गाड़ी आती देखी। उसकी दोनों लालटेने बिल्ली की आँखी की तरह चमक रही थीं। कौन आ रहा है?, चाचा साहब के सिवा और कौन होगा? मेरा और है ही कौन? इतने में गाड़ी निकट आ गई और उसमें से मदनसिंह उतरे।