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सेवासदन
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सुमन-—क्यों, भोली के घर जाने में कोई हानि है? उसके घर तो बड़े-बड़े लोग आते है, मेरी क्या गिनती है।

गजाधर—बड़े बड़े भले ही आवे,लेकिन तुम्हारा वहाँ जाना बड़ी लज्जा की बात है। मैं अपनी स्त्री को वेश्या से मेलजोल करते नही देख सकता। तुम क्या जानती हो कि जो बड़े-बड़े लोग उसके घर आते है यह कौन लोग हैं? केवल धन से कोई बड़ा थोड़े ही हो जाता है? धर्म का महत्व कहीं धन से बढ़कर है। तुम उस मौलूद के दिन जमाव देखकर धोखे मे आ गई होगी, पर यह समझ लो कि उनमें से एक भी सज्जन पुरुष नही था। मेरे सेठजी लाख धनी हों पर उन्हे मैं अपनी चौखट न लांघने दूँगा। यह लोग धनके घमण्ड में धर्म की परवाह नही करते। उनके आने से भोली पवित्र नही हो गई है। मैं तुम्हे सचेत कर देता हूँ कि आज से फिर कभी उधर मत जाना, नही तो अच्छा न होगा।

सुमन के मन मे बात आ गई ठीक ही है, मै क्या जानती हूँ कि वह कौन लोग थे। धनी लोग तो वेश्याओ के दास हुआ ही करते है। यह बात रामभोली भी कह रही थी। मुझे बड़ा धोखा हो गया था।

सुमन को इस विचार से बड़ा सन्तोष हुआ। उसे विश्वास हो गया कि वे लोग नीच प्रकृति के विषय-वासनावाले मनुष्य थे। उसे अपनी दशा अब उतनी दुःखदायी न प्रतीत होती थी। उसे भोली से अपने को ऊंचा समझने के लिए एक आधार मिल गया था।


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सुमन की धर्मनिष्ठा जागृत हो गई। वह भोलीपर अपनी धार्मिकता का सिक्का जमाने के लिए नित्य गंगा स्नान करने लगी। एक रामायण मँगवाई और कभी-कभी अपनी सहेलियों को उसकी कथाएँ सुनाती। कभी अपने आप उच्च स्वर मे पढ़ती। इससे उसकी आत्मा को तो क्या शान्ति होती, पर मन को बहुत सन्तोष होता था। चैत का महीना था। रामनौमी के दिन सुमन कई सहेलियो के साथ एक बड़े मन्दिर में जन्मोत्सव देखने गई। मन्दिर खूब सजाया हुआ था। बिजली बत्तियों से दिनका-सा प्रकाश हो रहा था, बड़ी भीड थी। मन्दिर के