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सेवासदन
३२९
 


लेकर पिल पडूँगा। मूर्ख मुझसे रूठने चला है। तब नहीं रूठा था जब पूजा के समय पोयी पर राल टपक़ाता था। खाने की थाली के पास पेशाब करता था। उसके मारे कपड़े साफ न रहने पाते थे उजले कपड़ों को तरस के रह जाता था। मुझे साफ कपड़े पहने देखता तो बदन में धूल मिट्टी लपेटे आकर सिरपर सवार हो जाता! तब क्यों नहीं रूठा था। आज रूठने चला है। अबकी पाऊँ तो ऐसी कनेठी दूँ की छठी का दूध याद आ जायगा।

दोनों भाई घर गये। भामा बैठी गाय को भूसा खिला रही थी और सदन की दोनों बहने खाना पकाती थी। भामा देवर को देखते ही खड़ी हो गई और बोली, भला तुम्हारे दर्शन तो हुए। चार पगपर रहते हो और इतना भी नहीं होता कि महिने में एक बार तो जाकर देख आवे--घरवाले मरे कि जीते है। कहो, कुशल से तो रहे?

पद्म--हाँ, सब तुम्हारा आशीर्वाद है। कहो, खाना क्या बन रहा हैं? मुझे इस वक्त खीर, हलुवा और मलाई खिलाओ तो वह सुख संवाद सुनाऊँ कि फड़क जाओ। पोता मुबारक हो।

भामा के मलिन मुखपर आनन्द की लालिमा छा गई और आँखो की पुतलियाँ पुष्प के समान खिल उठी। बोली, चलो, घी-शक्कर के मटके में डूबा दूँ, जितना खाते बने खाओ।

मदनसिंह ने मुँह बनाकर कहा, यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई। क्या ईश्वर के दरबार में उल्टा न्याय होता है? मेरा बेटा छिन जाय और उसे बेटा मिल जाय। अब वह एक से दो हो गया, मैं उससे कैसे जीत सकूँगा। हारना पड़ा। वह मुझे अवश्य खींच ले जाएगा। मेरे तो कदम अभी से उखड़ गये। सचमुच ईश्वर के यहाँ बुराई करनेपर भलाई होती है। उल्टी बात है कि नहीं। लेकिन अब मुझे चिन्ता नहीं है। सदन जहाँ चाहे जाय, ईश्वर ने हमारी सुन ली। कै दिन का हुआ है?

पद्म--आज चौथा दिन है, मुझे छुट्टी नहीं मिली नहीं तो पहले ही दिन आता।