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सेवासदन
 


शान्ता-तुम देखती हो, तुम्हारी आँखो की क्या बात है, वह तो मन तक की बात देख लेती है।

सुमन-आँखे सीधी करके बोली, क्या जो कुछ मैं कहती हूँ, झूठ है?

शान्ता—जब तुम जानती हो तो पूछती क्यों हो?

सुमन-इसलिए कि सब कुछ देख कर आँखो पर विश्वास नहीं आता। संसार मुझे चाहे कितना ही नीच समझे, मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है, वह मेरे मन का हाल नहीं जानता, लेकिन तुम सब कुछ देखते हुए भी मुझे नीच समझती हो, इसका आश्चर्य है। मैं तुम्हारे साथ लगभग दो वर्ष से हूँ, इतने दिनों में तुम्हें मेरे चरित्र का परिचय अच्छी तरह हो गया होगा।

शान्ता-नहीं बहन, मैं परमात्मा से कहती हूँ, यह बात नही हैं। हमारे ऊपर इतना बड़ा कलंक मत लगाओ। तुमने मेरे साथ जो उपकार किये है, वह मैं कभी न भूलूँगी। लेकिन बात यह है कि उनकी बदनामी हो रही है। लोग मनमानी बातें उड़ाया करते है। वह (सदनसिंह) कहते थे कि सुभद्रा जी यहाँ आने को तैयार थी, लेकिन तुम्हारे रहने की बात सुनकर नहीं आई और बहन बुरा न मानना, जब संसार में यही प्रथा चल रही है तो हम लोग क्या कर सकते है।

सुमन ने विवाद न किया। उसे आज्ञा मिल गई। अब केवल एक रुकावट थी। शान्ता थोड़े ही दिनों में बच्चे की माँ बनने वाली थी। सुमन ने अपने मन को समझाया; इस समय छोड़कर चली जाऊँगी तो इसे कष्ट होगा। कुछ दिन और सह लूँ, जहाँ इतने दिन काटे हैं, महीने दो महीने और सही। मेरे ही कारण यह इस विपत्ति में फँसे हुए है। ऐसी अवस्था में इन्हें छोड़कर जाना मेरा धर्म नहीं है।

सुमन का यहाँ एक-एक दिन एक-एक साल की तरह कटता था, लेकिन सब्र किये पड़ी हुई थी।

पापहीन पक्षी पिंजरबद्ध रहने में ही अपना कुशल समझता है।

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पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुपयोग का यह फल हुआ