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सेवासदन
३१९
 


किसी सहारे के संसार मे रहने का विचार करके उसका कलेजा काँपने लगता था। वह अकेली असहाय, संसार-संग्राम में आने का साहस न कर सकती थी। जिस संग्राम में बड़े-बड़े कुशल, धर्मशील, दृढ संकल्प मनुष्य मुँह की खाते हैं, वहाँ मेरी क्या गति होगी। कौन मेरी रक्षा करेगा? कौन मुझे सँभालेगा? निरादर होने पर भी यह शंका उसे यहाँ से निकलने न देती थी।

एक दिन सदन दस बजे कही से घूमकर आया और बोला, भोजन में अभी कितनी देर है, जल्दी करो। मुझे पंण्डित उमानाथ से मिलने जाना है। चाचा के यहाँ आये हुए है।

शान्ता ने पूछा, वह यहाँ कैसे आये?

सदन--अब यह मुझे क्या मालूम? अभी जीतन आकर कह गया है कि वह आये हुए है और आज ही चले जायेंगे। यहाँ आना चाहते थे, लेकिन (सुमन की ओर इशारा करके) किसी कारण से नहीं आए।

शान्ता--तो जरा बैठ जाओ, यहाँ अभी घण्टों की देर है।

सुमन ने झुँझलाकर कहा, देर क्या है, सब कुछ तो तैयार है। आसन बिछा दो, पानी रख दो, मैं थाली परसती हूँ।

शान्ता--अरे, तो जरा ठहर ही जायेंगे तो क्या होगा? कोई डाक गाड़ी छूटी जाती है? कच्चा-पक्का खाने का क्या काम?

सदन--मेरी समझ नहीं आता कि दिनभर क्या होता रहता है! जरा-सा भोजन बनाने में इतनी देर हो जाती है।

सदन जब भोजन करके चला गया, तब सुमन ने शान्ता से पूछा, क्यों शान्ता, सच बता, तुझे मेरा यहाँ रहना अच्छा नहीं लगता? तेरे मन में जो कुछ हैं वह मैं जानती हूँ, लेकिन तू जब तक अपने मुँह से मुझे दुत्कार न देगी, मैं जाने का नाम न लूँगी। मेरे लिए कही ठिकाना नहीं है।

शान्ता--बहन, कैसी बात कहती हो, तुम रहती हो तो घर संभला हुआ है, नहीं तो मेरे किए क्या होता?

सुमन--यह मुँह देखी बात मत करो, मैं ऐसी नादान नही हूँ। मैं तुम दोनों आदमियों को अपनी ओर से कुछ खिंचा हुआ पाती हूँ।