३१६ | सेवासदन |
सदन के स्वभाव में भी अब कायापलट हो गया है। वह प्रेम का आनन्द भोग करने में तन्मय हो रहा है। वह अब दिन चढ़े उठता है, घण्टो नहाता है, बाल सँवारता है, कपडे बदलता है, सुगन्ध मलता है। नौ बजेसे पहले वह अपनी बैठक में नही आता और आता भी है तो जमकर बैठता नही, उसका मन कही और रहता है। एक-एक पलमें भीतर जाता है और अगर बाहर किसी से बात करनेमें देर हो जाती है, तो उकताने लगता है। शान्ताने उसपर वशीकरण मन्त्र डाल दिया है।
सुमन घरका सारा काम भी करती है और बाहरका भी वह घडी रात रहे उठती है और स्नान-पूजाके बाद सदनके लिए जलपान बनाती है। फिर नदीके किनारे आकर नाव खुलवाती है। नौ बजे भोजन बनाने बैठ जाती है। ग्यारह बजे तक यहाँ से छुट्टी पाकर वह कोई-न-कोई काम करने लगती है। नौ बजे रात को जब सब लोग सोने चले जाते है, तो वह पढ़ने बैठ जाती है, तुलसी की विनय पत्रिका और रामायण से उसे बहुत प्रेम है। कभी भक्तमाल पढ़ती है, कभी विवेकानन्द के व्याख्यान और कभी रामतीर्थ लेख। वह विदुषी स्त्रियों के जीवनचरित्रों को बडे चावसे पढ़ती है। मीरापर उसे असीम श्रद्धा है। वह बहुधा धार्मिक ग्रन्थ ही पढ़ती है। लेकिन ज्ञानकी अपेक्षा भक्तिमे उसे अधिक शांति मिलती है।
मल्लाहों की स्त्रियों में उसका बडा आदर है, वह उनके झगड़े चुकाती
है, किसीके बच्चे के लिए कुर्सी टोपी सीती है, किसीके लिए अञ्जन या
घुट्टी बनाती है। उनमें कोई बीमार पड़ता है तो उसके घर जाती है और
दवा दारूकी फिक्र करती है। वह अपनी गिरी दिवाल को फिरसे उठा रही
है। उस बस्ती के सभी नर-नारी उसकी प्रशंसा करते है और उसका यश
गाते है। हाँ, अगर आदर नही है तो अपने घर में। सुमन इस तरह जी
तोड़कर घरका सारा बोझ संभाले हुए है,लेकिन सदनके मुहसे कृतज्ञता का
एक शब्द भी नही निकलता। शान्ता भी उसके इस परिश्रम का कुछ मूल्य
नही समझती। दोनों के दोनों उसकी ओर से निश्चिन्त है, मानो वह घर की
लड़ी है और चक्की में जुते रहना ही उसका धर्म है। कभी-कभी उसके