यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३०६
सेवासदन
 

बिट्ठल-आप तो ऐसी बाते कह रहे है, मानों मैने जान बूझकर उन्हें निकाल दिया हो।

शर्मा-आप उन्हें तसल्ली देते रहते तो वह कभी न जाती। आपने मुझसे भी अब कहा है, जब अवसर हाथ से निकल गया।

विट्ठल- आप सारी जिम्मेदारी मुझी पर डालना चाहते हैं।

पद्म-और किस पर डालूँ? आश्रम के संरक्षक आपही हैं या कोई और?


विट्ठल- शान्ता के वहाँ रहते तीन महीने से अधिक हो गये, आप कभी भूलकर भी आश्रम की ओर गये? अगर आप कभी-कभी वहाँ जाकर उसका कुशल समाचार पूछते रहते तो उसे धैर्य रहता। जब आपने उसकी कभी बात तक न पूछी तो वह किस आधार पर वहाँ पड़ी रहती? मैं अपने दायित्व को स्वीकार करता हूँ, पर आप भी दोष से नहीं बच सकते।

पद्मसिंह आजकल विट्ठलदास से चिढ़े हुए थे। उन्होंने उन्हीं के अनुरोधसे वेश्या-सुधार के काम में हाथ डाला था, पर अन्त में जब काम करने का अवसर पड़ा तो वह साफ निकल गये। उधर विट्ठलदास भी वेश्याओं के प्रति उनकी सहानुभूति देखकर उन्हें संदिग्ध दृष्टि से देखते थे। वे इस समय अपने-अपने हृदय की बात न कहकर एक दूसरे पर दोषारोपण करने की चेष्टा कर रहे थे। पद्मसिंह उन्हें खूब आड़े हाथों लेना चाहते थे, पर यह प्रत्युत्तर पाकर उन्हें चुप हो जाना पड़ा। बोले- हाँ, इतना दोष मेरा अवश्य है।

विट्ठल नहीं, आपको दोष देना मेरा आशय नहीं हैं। दोष सब मेरा ही है। आपने जब उन्हें मेरे सुपुर्द कर दिया तो आपका निश्चिन्त हो जाना स्वाभाविक ही था।

शर्मा—नहीं वास्तव में यह सब मेरी कायरता और आलस्य का फल है। आप उन्हें जबर्दस्ती नहीं रोक सकते थे।

पद्मसिंह ने अपना दोष स्वीकार करके बाजी पलट दी थी। हम आप