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सेवासदन
 


उसका हृदय कुछ हलका हुआ। सुमन ने यदि उसे गालियाँ दी होती तो और भी बोध होता। वह अपने को इस तिरस्कार के सर्वथा योग्य समझता था।

उसने ठंडे पानी का कटोरा सुमन को दिया और स्वयं पंखा झलने लगा। सुमनने शान्ता के मुँहपर पानी के कई छींटे दिये। इसपर भी जब शान्ता ने आँखें न खोली, तब सदन बोला, जाकर डाक्टर को बुला लाऊँ न?

सुमन-नहीं, घबराओ मत। ठंढक पहुँचते ही होश आ जायगा। डाक्टर के पास इसकी दवा नहीं है।

सदन को कुछ तसल्ली हुई बोला, सुमन, चाहे तुम समझो कि मैं बात बना रहा हूँ, लेकिन मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि उसी मनहूस घडी़ से मेरी आत्मा को कभी गति नहीं मिली। सो बार बार अपनी मूर्खता पर पछताता था कई बार इरादा किया कि चलकर अपना अपराध क्षमा कराऊँ, लेकिन यही विचार उठता कि किस बूते पर जाऊँ? घर वालों से सहायता की कोई आशा न थी, और मुझे तो तुम जानती ही हो कि सदा कोतल घोड़ा बना रहा। बस इसी चिन्ता में डूबा रहता था कि किसी प्रकार चार पैसे पैदा करूँ और अपनी झोपड़ी अलग बनाऊँ। महीनों नौकरी की खोज में मारा मारा फिरा, कही ठिकाना न लगा। अन्त को मैने गंगामाता की शरण ली और अब ईश्वर की दया से मेरी नाव चल निकली है, अब मुझे किसी के सहारे या मदद की आवश्यकता नहीं है। यह झोपड़ी बना ली है, और विचार है कि कुछ रुपये और आ जायँ तो उस पार किसी गाँव में एक मकान बनवा लूँ। क्यों, इनकी तबीयत कुछ संँभली हुई मालूम होती है?

सुमन का क्रोध कुछ शान्त हुआ। बोली, हाँ अब कोई भय नहीं हैं, केवल मूर्च्छा थी। आँखे बंद हो गई और ओठों का नीलापन जाता रहा।

सदन को ऐसा आनन्द हुआ कि यदि वहांँ ईश्वर की कोई मूर्ति होती तो उसके पैरो पर सिर रख देता। बोला, सुमन मेरे साथ जो उपकार किया है उसको मैं सदा याद करता रहूंँगा। अगर और कोई बात हो जाती तो इस लाश साथ मेरी लाश भी निकलती है

सुमन--यह कैसी बात मुँह से निकालते हो। परमात्मा चाहेंगे तो