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सेवासदन
 


इस विषय में चुप रहना ही उचित समझने थे। वह पहले में ही उसकी खातिर करते थे, अब कुछ आदर भी करने लगे और सुभद्रा तो उसे लडके के समान मानने लगी।

एक दिन रात के समय सदन अपने झोपड़े में बैठा हुआ नदी की तरफ देख रहा था। आज न जाने क्यों नाव के आने में देर हो रही थी। समान लैम्प जल रहा था। सदन के हाथ में एक समाचारपत्र था, पर उसका ध्यान पढ़ने में न लगता था। नाव के न आने से उसे किसी अनिप्ट की शंका हो रही थी। उसने पत्र रख दिया और बाहर निकलकर तटपर आया। रेतपर चाँदनी की सुनहरी चादर बिछी हुई थी और चाँद की किरणों नदी के हिलते हुए जलपर ऐसी मालूम होती थी जैसे किसी झरने से निर्मल जल की धारा क्रमश: चौड़ी होती हुई निकलती है। झोपड़े के सामने चबूतरे पर कई मल्लाह बैठे हुए बातें कर रहे थे कि अकस्मात् सदन ने दो सत्रयों को शहर की ओर से आते देखा। उनमे से एक ने मल्लाहो से पूछा, हमें उस पार जाना है, नाव ले चलोगे?

सदन ने शब्द पहचाने। यह सुमन बाई थी। उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी आई; आँखो में एक नशा-सा आ गया। लपककर चबूतरे के पास आया और सुमन से बोला, बाईजी, तुम यहाँ कहाँ?

सुमन ने ध्यान से सदन को देखा, मानों उसे पहचानती ही नहीं। उसके साथ वाली स्त्रीने घुंँघट निकाल लिया और लालटेन के प्रकाश से कई पग हटकर अन्धेरे में चली गयी। सुमन ने आश्चर्यसे कहा, कौन? सदन?

मुल्लाहो ने उठकर घेर लिया, लेकिन सदन ने कहा, तुम लोग इस समय यहाँ से चले जाओ। ये हमारे घरकी स्त्रियाँ है, आज यही रहेंगी। इसके बाद वह सुमन से बोला, बाईजी कुशल-समाचार कहिये। क्या क्या माजरा है?

सुमन--सब कुशल ही है, भाग्य में जो कुछ लिखा है वही भोग रही हैं। आज का पत्र तुमने अभी न पढ़ा होगा, प्रभाकरराव ने न जाने क्या छाप दिया कि आश्रम में हलचल मच गई। हम दोनों बहने वहाँ