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सेवासदन
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वेश्याओं के सुधार पर विश्वास न था। सैयद शफकतअली भी जो इस तरमीम के जन्मदाता थे, उनसे कन्नी काट गए और कुँवर साहब को तो अपने साहित्य, संगीत और सत्सगसे ही अवकाश न मिलता था, केवल साधु गजाधर ने इस कार्य में पद्मसिंह का हाथ बटाया। उस सदुद्योगी पुरुष मे सेवा का भाव पूर्णरूप से उदय हो चुका था।

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एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नये धंधे की चर्चा घर मे किसी से न की। वह नित्य सवेरे उठकर गंगास्नान के बहाने चला जाता। वहाँ से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया गया घड़ी रात गये घर लौटता। अब उसकी नाव घाट पर की सब नावों से अधिक सजी हुई, दर्शनीय थी। उस पर दो तीन मोढ़े रखे रहते थे और एक जाजिम बिछी रहती थी। इसलिए शहर के कितने ही रसिक, विनोदी मनुष्य उस पर सैर किया करते थे, सदन किराये के विषय मे खुद बातचीत न करता। यह काम उसका नौकर झीगुर मल्लाह किया करता था। वह स्वंय कभी तो तटपर बैठा रहता और कभी नाव पर जा बैठता था। वह अपने को बहुत समझाता कि काम करने में क्या शर्म? मैंने कोई बुरा काम तो नहीं किया है, किसी का गुलाम तो नहीं हूँ कोई आँख तो नहीं दिखा सकता। लेकिन जब वह किसी भले आदमी को अपनी नाव की ओर आते देखता तो आप ही आप उसके कदम पीछे हट जाते और लज्जा से आँखे झुक जाती। वह एक जमीदार का पुत्र था और एक वकील का भतीजा। उस उच्च पद से उतरकर मल्लाह का उद्यम करने में उसे स्वभावतः लज्जा आती थी, जो तर्क से किसी भाँति न हटती। इस संकोच से उसकी बहुत हानि होती थी। जिस काम के लिए वह सुगमता से एक रुपया ले सकता था, उसी के लिए उसे आधे में ही राजी होना पड़ता था। ऊँची दूकान पकवान फीके होने पर भी बाजार मे श्रेष्ठ होती है। यहाँ तो पकवान अच्छे थे, केवल एक चतुर सजीले दुकानदार की कमी थी। सदन इस बात को समझता था, पर संकोच वश कुछ कह न सकता था। तिसपर भी