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सेवासदन
 


पक्की हो गई, यह भी तै हो गया कि जिसकी नाव है वही उसे चलाने के लिए नौकर होगा।

सदन घर को ओर चला तो ऐसा प्रसन्न था मानों अब उसे जीवन में किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं है, मानों उसने किसी बड़े भारी संग्राम में विजय पायी है। सारी रात उसकी आँखो में नींद नहीं आई। वहीं नाव जो पाल खोले क्षितिज की ओर से चली आती थी उसके नेत्रों के सामने नाचती रही, वही दृश्य उसे दिखाई देते रहे। उसकी कल्पना ने तटपर एक सुन्दर, हरि-भरि लताओं से सजा हुआ झोपड़ा बनाया और शान्ता की मनोहारिणी मूर्ति आकर उसमें बैठी। झोपड़ा प्रकाशमान हो गया। यहाँ तक कि आनन्द-कल्पना धीरे-धीरे नदी के किनारे एक सुन्दर भवन बनाया, उसमें एक वाटिका लगवाई और सदन उसकी कुञ्जों में शान्ता के साथ बिहार करने लगा। एक ओर नदी की कलकल ध्वनि थी, दूसरी ओर पक्षियों का कलरव गान। हमें जिससे प्रेम होता है उसे हम सदा एक ही अवस्था में देखते है, हम उसे जिस अवस्था में स्मरण करते है, उसी समय के भाव उसी समय के वस्त्राभूषण हमारे हृदय पर अंकित हो जाते है। सदन शान्ता को उसी अवस्था में देखता था, जब वह एक सादी साड़ी पहने सिर झुकाये गंगातट पर खड़ी थो, वह चित्र उसकी आँखों से न उतरता था।

सदन को इस समय ऐसा मालूम होता था कि इस व्यवसाय में लाभ ही लाभ है, हानि की सम्भावना ही उसके ध्यान से बाहर थी। सबसे विचित्र बात यह थी कि अबतक उसने यह न सोचा था कि रुपये कहाँ से आवेगे?

प्रातःकाल होते ही उसे चिन्ता हुई कि रुपयों का क्या प्रबन्ध करूँ? किससे माँगू और कौन देगा? माँगू किस बहाने से? चाचा से कहूँ? नहीं उनके पास आजकल रुपये में होगे। महीनों से कचहरी नहीं जाते और दादा से माँगना तो पत्थर से तेल निकालना है। क्या कहूँ? यदि इस समय न गया तो चौधरी अपने मन से क्या कहेगा? वह छत पर इधर-उधर टहलने लगा। अभिलाषाओं का वह विशाल भवन, अभी थोड़ी देरप हले उसकी कल्पना ने जिसका निर्माण किया था देखते-देखते गिरने