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सेवासदन
२५
 


हूँ, किसी भलेमानुस के घर से मेरी रोक तो नही, कोई मुझे नीच तो नहीं समझता। वह कितना ही भोग-विलास करे पर उसका कही आदर तो नही होता। बस, अपने कोठे पर बैठी अपनी निर्लज्जता और अधर्म का फल भोगा करे। लेकिन सुमन को शीघ्र ही मालूम हुआ कि मैं इसे जितनी नीच समझती हूँ, उससे वह कही ऊंची है।

आषाढ के दिन थे। गरमी के मारे सुमन का दम फूल रहा था सन्ध्या को उसे किसी तरह न रहा गया। उसने चिक उठा दी और द्वार पर बैठी पंखा झल रही थी। देखती क्या है कि भोली बाई के दरवाजे पर किसी उत्सव की तैयारियाँ हो रही है। भिश्ती पानी का छिड़काव कर रहे थे। आगंन मे एक शामियाना ताना जा रहा था। उसे सजाने के लिए बहुत से फूल-पत्ते रखे हुए थे। शीशे के सामान ठेलो पर लदे चले आते थे। फ़र्श बिछाया जा रहा था। बीसो आदमी इधर-से-उधर दौडते फिरते थे, इतने में भोली की निगाह उस घर पर गई। सुमन के समीप आकर बोली, आज मेरे यहाँ मौलूद है। देखना चाहो तो परदा करा दूँ।

सुमन ने बेपरवाही से कहा--मै यही बैठे-बैठे देख लूगी।

भोली-—देख तो लोगी, पर सुन न सकोगी। हर्ज क्या है, ऊपर परदा करा दूँ?

सुमन--मुझे सुनने की उतनी इच्छा नही है।

भोली ने उसकी ओर एक करुण सूचक दृष्टि से देखा और मन में कहा, यह गँवारिन अपने मन में न जाने क्या समझे बैठी है। अच्छा, आज तू देख ले कि मैं कौन हूँ? वह बिना कुछ कहे चली गयी।

रात हो रही थी। सुमन का चूल्हे के सामने जाने को जी न चाहता था। बदन मे योंही आग लगी हुई है। आँच कैसे सही, जायगी, पर सोच-विचार कर उठी। चूल्हा जलाया खिचड़ी डाली और फिर आकर वहाँ तमाशा देखने लगी। आठ बजते-बजते शामियाना गैस के प्रकाश से जगमगा उठा। फूल-पत्तो की सजावट उसकी शोभा को और भी बढ़ा