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सेवासदन
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है। अगर संसार में कोई प्राणी था जो सपूर्णतः उनकी अवस्था को समझता था तो वह सुभद्रा थी। वह उस तरमीम को उससे कही अधिक आवश्यक समझती थी, जितना वे स्वयं समझते थे। वह उनके सहकारियों की उनसे कही अधिक तीव्र समालोचना करती। उसकी बातों से पद्मसिंह को बड़ी शांति होती थी। यद्यपि वह समझते थे कि सुभद्रा में ऐसे गहन विषय के समझने और तौलने की सामर्थ्य नहीं और यह जो कुछ कहती है वह केवल मेरी ही बातों की प्रतिध्वनि है तथापि इस ज्ञान से उनके आनन्द में कोई विघ्न न पड़ता था।

लेकिन महीना पूरा भी न हो पाया था कि प्रभाकरराव ने अपने पत्र में इस प्रस्ताव के संबंध में एक लेखमाला निकालनी आरंभ कर दी। उसमें पद्मसिंह पर ऐसी ऐसी मार्मिक चोट करने लगे कि उन्हें पढ़कर वह तिलमिला जाते थे। एक लेख में उन्होने पद्मसिंहके पूर्व चरित्र और इस तरमीम से घनिष्ट संबंध दिखाया। एक दूसरे लेख मे उनके आचरण पर आक्षेप करते हुए लिखा, वह वर्तमानकाल के देश-सेवक है जो देशको भूल जायें, पर अपने को कभी नही भूलते, जो देशसेवा की आड़ मे अपना स्वार्थ साधन करते है। जाति के नवयुवक कुएँ मे गिरते हो तो गिरे, काशी के हाजी की कृपा बनी रहनी चाहिये। पद्मसिंह को इस अनुदारता और मिथ्या द्वेष पर जितना क्रोध आता था उतनाही आश्चर्य होता था। असज्जनता इस सीमा तक जा सकती है यह अनुभव उन्हें आज ही हुआ। यह सभ्यता और शालीनता के ठेकेदार बनते है, लेकिन उनकी आत्मा ऐसी मलिन है। और किसी मे इतना साहस नहीं कि इसका प्रतिवाद करे?

सन्ध्या का समय था। वह लेख चारपाईपर पड़ा हुआ था। पद्मसिंह सामने मेजपर बैठे हुए इस लेख का उत्तर लिखने की चेष्टा कर रहे थे, पर कुछ लिखते न बनता था कि सुभद्रा ने आकर कहा, गरमी में यहाँ क्यों बैठे हो? चलो बाहर बैठो।

पद्म--प्रभाकरराव ने मुझे आज खूब गालियाँ दी है, उन्हीं का जवाब लिख रहा हूँ।