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सेवासदन
२६३
 


शान्ता डचौढे दरजे के जनाने कमरे में बैठी हुई थी। वहाँ दो ईसाई लेडियाँ ओर बैठी थी। वे शान्ता को देखकर अग्रेजी में बाते करने लगी।

"मालूम होता है यह कोई नवविवाहिता स्त्री है।”

"हाँ, किसी ऊँचे कुलकी है। ससुराल जा रही है।”

"ऐसी रो रही है मानों कोई ढकेले लिये जाता हो।”

“पतिकी अभीतक सूरत न देखी होगी, प्रेम कैसे हो सकता है। भय से उसका हृदय काँप रहा होगा।”

"यह इनके यहाँ अत्यत निकृष्ट रिवाज है। बेचारी कन्या एक अनजान घर में भेज दी जाती है, जहाँ कोई उसका अपना नहीं होता।”

"यह सब पाशविक कालकी प्रथा है, जब स्त्रियों को बलात् उठा ले जाते थे।"

"क्यो बाईजी, (शान्ता से) ससुराल जा रही हो?”

शान्ता ने धीरे से सिर हिलाया।

"तुम इतनी रूपवती हो, तुम्हारा पति भी तुम्हारे जोड़ का है?"

शान्ता ने गंभीरता से उत्तर दिया, पति की सुन्दरता नहीं देखी जाती।

"यदि वह काला-कलूटा हो तो?”

शान्ता ने गर्व से उत्तर दिया, हमारे लिये वह देवतुल्य है, चाहे कैसा ही हो।

अच्छा, मान लो तुम्हारे ही सामने दो मनुष्य लाये जायें, एक रूपवान हो, दूसरा कुरूप, तो तुम किसे पसन्द करोगी?

शान्ता ने दृढता से उत्तर दिया, जिसे हमारे माता-पिता पसन्द करें।

शान्ता समझ रही थी कि यह दोनों हमारी विवाह-प्रथा पर आक्षेप कर रही है। थोडी देर के बाद उसने उनसे पूछा, मैंने सुना है आप लोग अपना पति खुद चुन लेती है?

"हाँ, हम इस विषय में स्वतन्त्र है।"

"आप अपने को माँ-बाप से बुद्धिमान समझती है?"