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सेवासदन
 


जब गाड़ी चली तो पद्मसिंह ने विट्लदास से कहा, अब इस अभिनयका सबसे कठिन भाग आ गया।

बिट्ठल——मैं नहीं समझा।

पद्म——क्या शान्ता से कुछ कहे सुने बिना ही उसे आश्रम में पहुँचा दीजियेगा। उसे पहले उसके लिये तैयार करना चाहिये।

विट्ठल——हाँ, यह आपने ठीक सोचा, तो जाकर कह दूँ?

पद्म——जरा सोच तो लीजिये, क्या कहियेगा? अभी तो वह यह समझ रही है कि ससुराल में जा रही हूँ। वियोग के दु:ख मे यह आशा उसे सँभाले हुए है। लेकिन जब उसे हमारा कौशल ज्ञात हो जायगा तो उसे कितना दुःख होगा? मुझे पछतावा हो रहा है कि मैंने पहले ही वे बाते क्यों न कह दी?

विट्ठल——तो अब कहने में क्या बिगड़ा जाता है? मिर्जापुर में गाड़ी देर तक ठहरेगी, मैं जाकर उसे समझा दूँगा।

पद्म——मुझसे बड़ी भूल हुई।

विट्ठल——तो उस भूलपर पछताने से अगर काम चल जाय तो जी भरकर पछता लीजिये।

पद्म——आपके पास पेन्सिल हो तो लाइये, एक पत्र लिखकर सब समाचार प्रकट कर दूँ।

विट्ठल——नहीं तार दे दीजिये, यह और भी उत्तम होगा। आप विचित्र जीव है, सीधी-सी बात में भी इतना आगा पीछा करने लगते है।

पद्म—— समस्या ही ऐसी आ पड़ी है, मैं क्या करुँ? एक बात मेरे ध्यान में आती है, मुगलसराय में देर तक रुकना पड़ेगा, बस वही उसके पास जाकर सब वृत्तांत कह दूँगा।

विट्ठल——यह आप बहुत दूर की कौड़ी लाये, इसलिये बुद्धिमानों ने कहा है कि कोई काम बिना भली भाँति सोचे नहीं करना चाहिये। आपकी बुद्धि ठिका ने पर पहुँचती है, लेकिन बहुत चक्कर खाकर। यही बात आपको पहले न सूझी।