तो अब तक कभी एक सार्वदेशिक भाषा बन गई होती। जबतक आप जैसे विद्वान् लोग अंग्रेजी के भक्त बने रहेंगे, कभी एक सार्वदेशिक भाषा का जन्म न होगा। मगर यह काम कष्ट-साध्य है, इसे कौन करे? यहाँ तो लोगों को अंग्रेजी जैसी समुन्नत भाषा मिल गयी, सब उसी के हाथों बिक गये। मेरी समझ में नहीं आता कि अंग्रेजी भाषा बोलने और लिखने में लोग क्यो अपना गौरव समझते है? मैंने भी अंग्रेजी पढ़ी है। दो साल विलायत रह आया हूँ और आपके कितने ही अंग्रेजी के धुरंधर पंडितों से अच्छी अंगेजी लिख और बोल सकता हूँ पर मुझे उससे ऐसी घृणा होती है जैसे किसी अंगेज के उतारे कपड़े पहनने से।
पद्मसिंह ने इन वादों मे कोई भाग न लिया। ज्योंही अवसर मिला, उन्होंने विट्ठलदास को बुलाया और उन्हें एकान्त में ले जाकर शान्ता का पत्र दिखाया।
विट्ठलदास ने कहा, अब आप क्या करना चाहते है?
पद्म-मेरी तो कुछ समझ ही नहीं आता। जबसे यह पत्र मिला है, ऐसा मालूम होता है मानो नदी में बहा जाता हूँ।
विट्ठल--कुछ न कुछ करना तो पड़ेगा।
पद्म-—क्या करूँ?
विट्ठल--शान्ता को बुला लाइये।
पद्म-—सारे घर से नाता टूट जायगा।
विट्ठल- टूट जाय। कर्तव्य के सामने किसी का क्या भय?
पद्म—यह तो आप ठीक कहते है, पर मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं। भैया को मैं अप्रसन्न करने का साहस नहीं कर सकता।
विट्ठल-- अपने यहाँ न रखिये, विधवाश्रम रख दीजिये, यह तो कठिन नहीं।
पद्म-- हाँ, यह आपने अच्छा उपाय बताया। मुझे इतना भी न सूझा था। कठिनाई में मेरी बुद्धि जैसे चरने चली जाती है।