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सेवासदन
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एक प्रकार से स्वतंत्र होता है, उसका अधिकार शरीर पर होता है, आत्मापर नहीं। आप लोगों ने तो अपनी आत्मा ही को बेच दिया है। आपकी अंगरेजी शिक्षा ने आपको ऐसा पददलित किया है कि जबतक यूरोप का कोई विद्वान किसी विषय के गुण दोष प्रकट न करे तब तक आप उस विषय की ओर से उदासीन रहते है। आप उपनिषदों का आदर इस लिये नहीं करते कि वह स्वयं आदरणीय है बल्कि इसलिये करते है कि व्लावेट्स्की और मैक्समूलर ने उनका आदर किया है। आप में अपनी बुद्धि से काम लेने की शक्ति का लोप हो गया है। अभी तक आप तान्त्रिक विद्या की बात भी न पूछते थे। अब जो यूरोपीय विद्वानों ने उसका रहस्य खोलना शुरू किया तो आपको अब तन्त्रों मे गुण दिखाई देते है। यह मानसिक गुलामी उस भौतिक गुलामी से कहीं गई गुजरी है। आप उपनिषदों को अग्रेंजी में पढ़ते है, गीता को जर्मन मे अर्जुन को अर्जुना कृष्ण को कृशना कहकर अपनी स्वभाषा ज्ञान का परिचय देते है। आपने इसी मानसिक दासत्व के कारण उस क्षेत्र में अपनी पराजय स्वीकार कर ली, जहाँ हम अपने पुरुष की प्रतिभा और प्रचण्ड़ता से चिरकाल तक अपनी विषय पताका फहरा सकते थे।

रमेशदत्त इसका कुछ उत्तर देना ही चाहते थे कि कुंवर साहब बोल उठे मित्रों! अब मुझसे बिना बोले नहीं रहा जाता। लाला साहब, आप अपने इस ‘गुलामी' शब्द को वापस लीजिये।

विठ्ठल-क्यों वापस लूँ?

कुंवर -आपको इसके प्रयोग करने का अधिकार नहीं है।

विट्ठल—मेरा आशय यह है कि हममे कोई भी दूसरों को गुलाम कहने का अधिकार नहीं रखता। अंधों के नगर में कौन किसको अन्धा कहेगा? हम सबके सब राजा हो या रंक, गुलाम है। हम अगर अपढ़ निर्धन गंवार है तो थोड़े गुलाम है, हम अपने राम का नाम लेते है।, अपनी धोती पगड़ी का व्यवहार करते है, अपनी बोली बोलते हैं, अपनी गाय पालते है और अपनी गंगा में नहाते है, और हम यदि विद्वान,