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सेवासदन
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रुपया हाथ आ जाय तो निश्चिंत होकर करना पर वह मेरी बात माने तब तो?

शांता-मुझे वहीं क्यों नहीं पहुँचा देते?

जान्हवी ने विस्मित होकर पूछा, कहाँ?

शान्ता ने सरल भाव से उत्तर दिया, चाहे चुनार, चाहे काशी।

जान्हवी-—कैसे बच्चों की सी बात करती हो! अगर ऐसा ही होता तो रोना काहे का था? उन्हीं तुम्हे घर में रखना होता तो यह उपद्रव क्यों मचाते?

शान्ता-बहू बनाकर न रक्खे लौण्डी बनाकर तो रखेंगे।

जान्हवी ने निर्दयता से कहा, तो चली जाओ, तुम्हारे मामा से यह कभी न होगा कि तुम्हें सिर चढ़ाकर ले जाँय और वहाँ अपना अपमान करा के फिर तुम्हें ले आवे। वह तो उन लोगों का मुँह कुचलकर उनसे रुपये भरावेगें।

शान्ता-—मामी, वे लोग चाहे कैसे हो अभिमानी हो, लेकिन मैं उनके द्वारपर जाकर खड़ी हो जाऊंगी तो उन्हें मुझपर दया आ ही जायगी। मुझे विश्वास है कि वह मुझे अपने द्वारपर से हटा न देगे। अपना बैरी भी द्वार पर आ जाय तो उसे भगाते संकोच होता है मैं तो फिर भी...

जान्हवी अधीर हो गई। यह निर्लज्जता उससे न सही गई। बात काटकर बोली, चुप भी रहो, लाज हया तो जैसे तुम्हें छू नहीं गई। मान न मान में तेरा मेहमान। जो अपनी बात न पूछे बह चाहे धन्नासेठ ही क्यों न हो, उसकी ओर आँख उठाकर न देखे। अपनी तो यह टेक है। अब तो वे लोग यहाँ आकर नकघिसनी भी करे तो तुम्हारे मामा दूर ही से भगा देगे।

शान्ता चुप हो गई। संसार चाहे जो कुछ समझता हो, वह अपने को विवाहिता ही समझती थी। एक विवाहिता कन्या का दूसरे घर में विवाह हो, यह उसे अत्यंत लज्जाजनक, असह्य प्रतीत होता था। बारात आने के एक मास पहले से वह सदन के रूप गुण की प्रशंसा सुन-सुनकर उसके हाथों बिक चुकी थी। उसने अपने द्वार पर, द्वारचार के समय, सदन को अपने पुरुष की भॉति देखा है, इस प्रकार नहीं मानो वह कोई अपरिचित मनुष्य है। अब किसी दूसरे पुरुष की कल्पना उसके सतीत्व पर कुठार के