मैंने भी तो पाप किये है, पर कभी इस शक्ति का अनुभव नहीं किया कुछ नहीं, यह सब इनके शब्दजाल है, इन्होंने अपनी कायरता को शब्दों के आडम्बर में छिपाया है, यह मिथ्या है, पाप से पाप ही उत्पन्न होगा, अगर पाप से पुण्य होता तो आज संसार में कोई पापी न रह जाता।
यह सोचते हुए वे उठ बैठे, गजाधर भी आग के पास पड़े हुए थे। कृष्णचन्द्र चुपके से उठे और गंगा तट की ओर चले। उन्होने निश्चय कर लिया था कि अब इन वेदनाओं का अन्त ही करके छोड़ेगा।
चन्द्रमा अस्त हो चुका था। कुहरा और भी सघन हो गया था। अन्धकार ने वृक्ष, पहाड़ और आकाश में कोई अन्तर न छोड़ा था। कृष्ण चन्द्र एक पगडंडी पर चल रहे थे, पर दृष्टि की अपेक्षा अनुमान से अधिक काम लेना पड़ता था। पत्थर के टुकडों और झाड़ियों से बचने में वह ऐसे लीन हो रहे थे कि अपनी अवस्था का ध्यान न था।
करार के किनारे पहुँचकर उन्हें कुछ प्रकाश दिखाई दिया। वह नीचे उतरे। गंगा कुहरे की मोटी चादर ओढ़े पड़ी कराह रही थी। आस-पास के अन्धकार और गंगा में केवल प्रवाह का अन्तर था। यह प्रवाहित अन्धकार था। ऐसी उदासी छाई हुई थी जो मृत्यु के बाद घरों में छा जाती है।
कृष्णचन्द्र नदी के किनारे खड़े थे। उन्होने विचार किया, हाय! अब मेरा अन्त कितना निकट है। एक पल में यह प्राण न जाने कहाँ चले जायेंगे। न जाने क्या गति होगी? संसार से आज नाता टूटता है। परमात्मन् अब तुम्हारी शरण आाता हूँ, मुझपर दया करो, ईश्वर मुझे सँभालो।
इसके बाद उन्होंने एक क्षण अपने हृदय में बल का संचार किया। उन्हें मालूम हुआ कि मैं निर्भय हूँ। वह पानी में घुसे। पानी बहुत ठंडा था। कृष्णचन्द्र का सारा शरीर दहल उठा। वह घुसते हुए चले गये। गलेतक पानी में पहुँचकर एक बार फिर विराट तिमिर को देखा, यह संसार-प्रेम की अंतिम घड़ी थी, यह मनोबल की, आत्माभिमान की अंतिम परीक्षा थी। अब तक उन्होंने जो कुछ किया था यह केवल इसी परीक्षा की तैयारी थी।