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सेवासदन
 


देखा, जैसे कोई भूखा सिंह अपने शिकार को देखता है। उन्हें निश्चय हो रहा था कि यही मनुष्य मेरे कुल को कलंकित करने वाला है। इतना हीं, उसने सुमन के साथ भी अन्याय किया है। उसे नाना प्रकार के कष्ट दिये हैं। क्या मैं उसे केवल इसलिये छोड़ दूँ कि वह अब अपने दुष्कृत्यों पर लज्जित है? लेकिन उसने यह बात मुझसे कह क्यों दी? कदाचित वह समझता है कि मैं उसका कुछ नही बिगाड़ सकता। यही बात है, नहीं तो वह मेरे सामने अपना अपराध इतनी निर्भयता से क्यों स्वीकार कृष्णचन्द्र ने गजाधर के मनोभावों को न समझा। वह क्षणभर आग की तरफ ताकते रहे, फिर कठोर स्वर से बोले, गजाधर, तुमने मेरे कुल को डुबा दिया। तुमने मुझे कही मुँह दिखाने योग्य न रखा। तुमने मेरी लड़की की जान ले ली, उसका सत्यानाश कर दिया, तिसपर भी तुम मेरे सामने इस तरह बैठे हो मानो कोई महात्मा हो। तुम्हें चिल्लूभर पानी में डूब मरना चाहिए।

गजाघर जमीन की मिट्टी खुरच रहे थे। उन्होंने सिर उठाया।

कृष्णचन्द्र फिर बोले, तुम दरिद्र थे, इसमें तुम्हारा दोष नहीं। तुम अगर अपनी स्त्री का उचित रीति से पालनपोषण नहीं कर सके तो इसलिये तुम्हें दोषी नहीं ठहराता। तुम उसके मनोभावों को नहीं जान सके, उसके सद्वविचारों का मर्म नहीं समझ सके, इसके लिए भी मैं तुम्हें दोषी नहीं ठहराता। तुम्हारा अपराध यह है कि तुमने उसे घर से निकाल दिया। तुमने उसे मार क्यों नहीं डाला? अगर तुमको उसके पातिव्रत पर सन्देह था‌। तो तुमने उसका सिर काट क्यों नहीं लिया? और यदि उतना साहस नहीं था, तो स्वयं क्यों न प्राण त्याग कर दिया? विष क्यों न खा लिया अगर तुमने उसके जीवन का अन्त कर दिया होता तो उसकी यह दुर्दशा न हुई होती, मेरे कुल में यह कलंक न लगता। तुम भी कहोगे कि मैं पुरुष हूँ। तुम्हारी इस कायरता पर, इस निर्लज्जता पर धिक्कार है! जो पुरुष इतना नीच है कि अपनी स्त्री को दूसरों से प्रेमालाप करते देखकर उसका रुधिर खौल नहीं उठता वह पशुओं से भी गया बीता है।

गजाधर को अब मालूम हुआ कि सुमन को घर से निकालने की बात