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सेवासदन
२२९
 


है। आत्मा अपने को भूल गई थी। वह उस अपने ही घर में जाते डरता है।

कृष्णचन्द्र इसी प्रकार आगे बढ़ते हुए कोई चार मील चले गये। ज्यों-ज्यो गंगा तट निकट होता जाता था, त्यों-त्यों उनके हृदय की गति बढ़ती जाती थी। भय से चित्त अस्थिर हुआ जाता था। लेकिन वे इस आन्तरिक निर्बलता को कुछ तो अपने वेग और कुछ तिरस्कार से हटाने की चेष्टा कर रहे थे। हाँ मैं कितना निर्लज्ज, आत्मशून्य हूँ। इतनी दुर्दशा होने पर भी मरने से डरता हूँ। अकस्मात् उन्हें किसी के गाने की ध्वनि सुनाई दी। ज्यों-ज्यों वे आगे बढते थे, त्यों-त्यों वह ध्वनि निकट आती जाती थी। गाने वाला उन्हीं की ओर चला आ रहा था। उस निस्तब्ध रात्रि में कृष्णचन्द्र को वह गाना अत्यंत मधुर मालूम हुआ। कान लगाकर सुनने लगे :

हरिसों ठाकुर और न जनको।
  जेहि जेहि विधि सेवक सुख पावै तेहि विधि राखत तिनको॥
           हरिसों ठाकुर और न जनको।
       भूखे को भोजन जु उदर को तृषा तोय पट तनको।
  लाग्यो फिरत सुरभी ज्यों सुत सग उचित गमन गृह वनको।
           हरिसो ठाकुर और न जनको॥

यद्यपि गान माधुर्य-रस पूर्ण न था, तथापि वह शास्त्रोक्त था इसलिये कृष्णचन्द्र को उसमें बहुत आनन्द प्राप्त हुआ। उन्हे इस शास्त्र का अच्छा ज्ञान था। इसने उनके विदग्ध हृदय को शान्ति प्रदान कर दी।

गाना बन्द हो गया और एक क्षण के बाद कृष्णचन्द्र ने एक दीर्घकाय जटाधारी साधु को अपनी ओर आते देखा। साधु ने उनका नाम और स्थान पूछा। उसके भाव से ऐसा ज्ञात हुआ कि वह उनसे परिचित है। कृष्णचन्द्र आगे बढ़ना चाहते थे कि उसने कहा, इस समय आप इधर कहाँ जा रहे हैं?

कृष्णचन्द्र——कुछ ऐसा ही काम आ पड़ा है।