इस पृष्ठ को जाँचने की आवश्यकता नहीं है।
सेवासदन
२१३
 


सदन दालमंण्डी के सामने आकर ठिठक गया; उसकी प्रेमाकांक्षा मन्द हो गई। वह धीरे-धीरे एक ऐसे स्थानपर आया जहां से सुमनकी अट्टालिका साफ दिखाई देती थी। यहाँ से कातर नेत्रों से उस मकानके द्वार की ओर देखा। द्वार बन्द था ताला पड़ा हुआ था । सदन के हृदयसे एक बोझा-सा उतर गया। उसे कुछ वैसा ही आनन्द हुआ जैसा उस मनुष्यको होता है जो पैसा न रहनेपर भी लड़के की जिद से विवश होकर खिलौने की दूकान पर जाता है और उसे बन्द पाता है ।

लेकिन घर पहुँचकर सदन अपनी उदासीनता पर बहुत पछताया। वियोग की पीड़ा के साथ साथ उसकी व्यग्रता बढ़ती जाती थी। उसे किसी प्रकार धैर्य न होता था। रातको जब सब लोग खा-पीकर सोये तो वह चुपके से उठा और दालमण्डी की ओर चला। जाड़े की रात थी, ठण्डी हवा चल रहो थी, चन्द्रमा कुहरे की आड़ से झांकता था और किसी घबराये हुए मनष्य के समान सवेग दौड़ता चला जाता था। सदन दालमण्डी तक बड़ी तेजी से आया,पर यहाँ आकर फिर उसके पैर बंध गये । हाथ-पैर की तरह उत्साह भी ठण्डा पड़ गया। उसे मालूम हुआ कि इस समय यहाँ मेरा आना अत्यन्त हास्यास्पद है। सुमनके यहाँ जाऊँ तो वह मुझे क्या समझेगी। उसके नौकर आराम से सो रहे होंगे। वहाँ कौन मुझे पूछता है। उसे आश्चर्य होता था कि मैं यहाँ कैसे चला आया!मेरी बुद्धि उस समय कहाँ चली गई। अतएव वह लौट पड़ा।

दूसरे दिन सन्ध्या समय वह फिर चला। मनमे निश्चय कर लिया था कि अगर सुमनने मुझे देख लिया और बुलाया तो जाऊँगा, नहीं तो सीधे अपने राह चला जाऊंगा। उसका मुझे बुलाना ही बतला देगा कि उसका हृदय मेरी तरफ से साफ है। नहीं तो इस घटना के बाद वह मुझे बुलाने ही क्यों लगी। जछ और आगे बढ़कर उसने फिर सोचा,क्या वह मुझे बुलानेके लिये झरोखे पर बैठी होगी। उसे क्या मालूम है कि मैं यहाँ आ गया। यह नहीं,मुझे एक बार स्वयं उसके पास चलना चाहिये । सुमन मुझसे, कभी नाराज नहीं हो सकती और जो नाराज भी हो तो क्या